धर्मदास
ने कबीर साहब से कहा - प्रभो, अब आप मुझे वह
वृतांत कहो, जब आप पहली बार इस संसार में आये ।
कबीर
बोले - धर्मदास, जो तुमने
पूछा, वह युग-युग की कथा है, जो मैं
तुमसे कहता हूँ । जब सत्यपुरुष ने मुझे आज्ञा की, तब मैंने
जीवों की भलाई के लिये प्रथ्वी की ओर पाँव बढ़ाया, और विकराल
काल-निरंजन के क्षेत्र में आ गया । उस युग में मेरा नाम अंचित था ।
तब
जाते हुये मुझे अन्यायी कालनिरंजन मिला । वह मेरे पास आया, और झगङते हुये महा क्रोध से बोला - हे योगजीत, आप यहाँ कैसे आये? क्या आप मुझे मारने आये हो । हे
पुरुष, अपने आने का कारण मुझे बताओ?
मैंने
उससे कहा - निरंजन, मैं जीवों का
उद्धार करने के लिये सतपुरुष द्वारा भेजा गया हूँ । अन्यायी सुन, तुमने बहुत कपट चतुराई की । भोले भाले जीवों को तुमने बहुत भ्रम में डाला
है, और बार बार सताया ।
सतपुरुष
की महिमा को तुमने गुप्त रखा, और अपनी महिमा का बढ़ा
चढ़ा कर बखान किया । तुम तप्तशिला पर जीव को जलाते हो, और उसे
जला पका कर खाते हुये अपना स्वाद पूरा करते हो तुमने
ऐसा कष्ट जीवों को दिया ।
तब
सतपुरुष ने मुझे आज्ञा दी कि मैं तेरे जाल में फ़ँसे जीव को सावधान करके सतलोक ले
जाऊँ, और कालनिरंजन के कष्ट से जीव को मुक्ति दिलाऊं, इसलिये मैं संसार में जा रहा हूँ जिससे जीव को सत्यज्ञान देकर सतलोक
भेजूं ।
यह बात
सुनते ही कालनिरंजन भयंकर रूप हो गया, और मुझे
भय दिखाने लगा ।
फ़िर
वह क्रोध से बोला - मैंने सत्तर युगों तक सतपुरुष की सेवा तपस्या
की तब सतपुरुष ने मुझे तीन लोक का राज्य और उसकी मान बङाई दी । फ़िर दोबारा मैंने चौसठ
युग तक सेवा तपस्या की तब सतपुरुष ने सृष्टि रचने हेतु मुझे अष्टांगी कन्या (आद्याशक्ति) को दिया, और उस
समय तुमने मुझे मारकर मानसरोवर दीप से निकाल दिया था । योगजीत, अब मैं तुम्हें नहीं छोङूँगा, और तुम्हें मारकर
अपना बदला लूँगा । मैं तुम्हें अच्छी तरह समझ गया ।
मैंने
उससे कहा - धर्मराय निरंजन, मैं
तुमसे नहीं डरता, मुझे सतपुरुष का बल और तेज प्राप्त है ।
अरे काल तेरा मुझे कोई डर नहीं तुम मेरा कुछ नहीं बिगाङ सकते ।
यह
कहकर मैंने उसी समय सत्यपुरुष के प्रताप का सुमरन करके ‘दिव्यशब्द अंग’ से काल को मारा । मैंने उस पर दृष्टि
डाली, तो उसी समय उसका माथा काला पङ गया ।
जैसे
किसी पक्षी के पंख चोटिल होने पर वह जमीन पर पङा बेबस होकर देखता है, पर उङ नहीं पाता । ठीक यही हाल काल-निरंजन का था वह क्रोध कर रहा था, पर कुछ नहीं कर पा रहा था ।
तब वह
मेरे चरणों में गिर पङा, और बोला - ज्ञानीजी, मैं आपसे विनती करता हूँ कि मैंने आपको भाई समझ कर विरोध किया यह मुझसे
बङी गलती हुयी । अब मैं आपको सत्यपुरुष के समान समझता हूँ । आप बङे हो, शक्ति सम्पन्न हो आप गलती करने वाले अपराधी को भी क्षमा देते हो ।
जैसे
सत्यपुरुष ने मुझे तीन लोक का राज्य दिया वैसे ही आप भी मुझे कुछ पुरस्कार दो ।
सोलह सुतों में आप ईश्वर हो, ज्ञानीजी, आप और सत्यपुरुष दोनों एक समान हो ।
मैंने
कहा - निरंजन राव, तुम तो
सत्यपुरुष के वंश (सोलह सुतों) में
कालिख के समान कलंकित हुये हो । मैं जीवों को ‘सत्यशब्द’
का उपदेश करके सत्यनाम मजबूत करा के बचाने आया हूँ भवसागर से जीवों
को मुक्त कराने को आया हूँ । यदि तुम इसमें विघ्न डालते हो,
तो मैं इसी समय तुमको यहाँ से निकाल दूँगा ।
निरंजन
विनती करते हुये बोला - मैं आपका एवं सत्यपुरुष दोनों का सेवक हूँ
इसके अतिरिक्त मैं कुछ नहीं जानता । ज्ञानीजी, आपसे विनती है
कि ऐसा कुछ मत करो जिससे मेरा बिगाङ हो, और जैसे सत्यपुरुष
ने मुझे राज्य दिया, वैसे आप भी दो, तो
मैं आपका वचन मानूँगा । फ़िर आप मुक्ति के लिये हंस-जीव मुझसे ले लीजिये ।
तात, मैं आपसे विनती करता हूँ कि आप मेरी बात को मानो । आपका कहना ये भ्रमित
जीव नहीं मानेंगे, और उल्टे मेरा पक्ष लेकर आपसे वाद विवाद
करेंगे । क्योंकि मैंने मोहरूपी फ़ंदा
इतना मजबूत बनाया है कि समस्त जीव उसमें उलझ कर रह गये हैं । वेद, शास्त्र, पुराण, स्मृति में
विभिन्न प्रकार के गुण धर्म का वर्णन है, और उसमें मेरे तीन
पुत्र ब्रह्मा, विष्णु, महेश देवताओं
में मुख्य हैं ।
उनमें
भी मैंने बहुत चतुराई का खेल रचा है कि मेरे मतपंथ का ज्ञान प्रमुख रूप से वर्णन
किया गया है जिससे सब मेरी बात ही मानते हैं । मैं जीवों से मन्दिर, देव और पत्थर पुजवाता हूँ, और तीर्थ, व्रत, जप और तप में सबका मन फ़ँसा रहता है ।
संसार
में लोग देवी, देवों और भूत, भैरव आदि
की पूजा आराधना करेंगे, और जीवों को मार काट कर बलि देंगे ।
ऐसे अनेक मत सिद्धांतों से मैंने जीवों को बाँध रखा है कि धर्म के नाम पर यज्ञ,
होम, नेम और इसके अलावा भी अनेक जाल मैंने डाल
रखे हैं । अतः ज्ञानीजी ..आप संसार में जायेंगे, तो जीव आपका कहा नहीं मानेंगे, और वे मेरे मत फ़ंदे
में फ़ँसे रहेंगे ।
मैंने
कहा - अन्याय करने वाले.. निरंजन, मैं तुम्हारे जाल फ़ंदे को काट कर जीव को
सत्यलोक ले जाऊँगा । जितने भी मायाजाल जीव को फ़ँसाने के लिये तुमने रच रखे हैं
सतशब्द से उन सबको नष्ट कर दूँगा ।
जो जीव
मेरा ‘सारशब्द’ मजबूती से ग्रहण
करेगा तुम्हारे सब जालों से मुक्त हो जायेगा । जब जीव मेरे शब्द उपदेश को समझेगा, तो तेरे फ़ैलाये हुये सब भ्रम अज्ञान को त्याग देगा । मैं जीवों को सतनाम
समझाऊँगा । साधना कराऊँगा, और उन हंस जीवों का उद्धार कर
सतलोक ले जाऊँगा ।
सत्यशब्द
दृढ़ता से देकर मैं उन हंस जीवों को दया, शील,
क्षमा, काम आदि विषयों से रहित सहजता, सम्पूर्ण संतोष और आत्मपूजा आदि अनेक सदगुणों का धनी बना दूँगा । सतपुरुष
के सुमरन का जो सार उपाय है । उसमें सतपुरुष का अविचल नाम हंस जीव पुकारेंगे तब
तुम्हारे सिर पर पांव रखकर मैं उन हंस जीवों को सतलोक भेज दूँगा । अविनाशी ‘अमृतनाम’ का प्रचार प्रसार करके मैं हंस जीवों को
चेता कर भ्रम मुक्त कर दूँगा ।
इसलिये
धर्मराय निरंजन, मेरी बात मन लगाकर सुन,
इस प्रकार मैं तुम्हारा मान मर्दन करूँगा । जो मनुष्य विधिपूर्वक सदगुरू से दीक्षा
लेकर नाम को प्राप्त करेगा उसके पास काल नहीं आता । सत्यपुरुष के नामज्ञान से हंस
जीव को संधि हुआ देखकर काल निरंजन भी उसको सिर झुकाता है ।
यह बात
सुनते ही काल-निरंजन भयभीत हो गया ।
उसने
हाथ जोङकर विनती की - तात, आप दया करने वाले
हो इसलिये मुझ पर इतनी कृपा करो । सतपुरुष ने मुझे शाप दिया है कि मैं नित्य लाखों
जीव खाऊँ यदि संसार के सभी जीव सत्यलोक चले गये, तो मेरी भूख
कैसे मिटेगी?
फ़िर
सतपुरुष ने मुझ पर दया की, और भवसागर का राज्य मुझे दिया । आप भी मुझ पर
कृपा करो, और जो मैं माँगता हूँ वह वर मुझे दीजिये । सतयुग,
त्रेता और द्वापर इन तीनों में से थोङे जीव सत्यलोक में जायें लेकिन
जब कलियुग आये, तो आपकी शरण में बहुत जीव जायें । ऐसा पक्का
वचन मुझे देकर ही आप संसार में जायें ।
मैंने
कहा - काल-निरंजन, तुमने ये छल-मिथ्या का जो प्रपंच फ़ैलाया है, और तीनों युगों में
जीव को दुख में डाल दिया । मैंने तुम्हारी विनती जान ली अरे अभिमानी काल, तुम मुझे ठगते हो जैसी विनती तुमने मुझसे की वह मैंने तुम्हें बख्श दी ।
लेकिन चौथा युग यानी कलियुग जब आयेगा, तब मैं जीवों के
उद्धार के लिये अपने वंश यानी सन्तों को भेजूँगा ।
आठ अंश
सुरति संसार में जाकर प्रकट होंगे । उसके पीछे फ़िर नये और उत्तम स्वरूप सुरति ‘नौतम’ धर्मदास के घर जाकर प्रकट होंगे । सतपुरुष के
वे बयालीस अंश जीव उद्धार के लिये संसार में आयेंगे ।
वे
कलियुग में व्यापक रूप से पंथ प्रकट कर चलायेंगे, और जीव को
ज्ञान प्रदान कर सतलोक भेजेंगे । वे बयालीस अंश जिस जीव को सत्यशब्द का उपदेश
देंगे मैं सदा उनके साथ रहूँगा तब वह जीव यमलोक नहीं जायेगा,
और काल जाल से मुक्त रहेगा ।
निरंजन
बोला - साहिब, आप पंथ चलाओ, और भवसागर से उद्धार कर जीव को सतलोक ले जाओ । जिस जीव के हाथ में मैं अंश-वंश की छाप (नाम मोहर) देखूँगा
उसे मैं सिर झुकाकर प्रणाम करूँगा । सतपुरुष की बात को मैंने मान लिया ।
परन्तु
मेरी भी एक विनती है आप एक पंथ चलाओगे, और जीवों
को नाम देकर सत्यलोक भिजवाओगे तब मैं बारह पंथ (नकली)
बनाऊँगा । जो आपकी ही बात करते हुये, मतलब
आपके जैसे ही ज्ञान की बात.. मगर फ़र्जी, ज्ञान देंगे, और अपने आपको कबीरपंथी ही कहेंगे । मैं
बारह यम संसार में भेजूँगा, और आपके नाम से पंथ चलाऊँगा ।
मृतुअंधा
नाम का मेरा एक दूत सुकृत धर्मदास के घर जन्म लेगा । पहले मेरा दूत धर्मदास के घर
जन्म लेगा, इसके बाद आपका अंश वहाँ आयेगा । इस प्रकार
मेरा वह दूत जन्म लेकर जीवों को भरमायेगा, और जीवों को
सत्यपुरुष का नाम उपदेश (मगर नकली प्रभावहीन) देकर समझायेगा ।
उन बारह
पंथ के अंतर्गत जो जीव आयेंगे वे मेरे मुख में आकर मेरा ग्रास बनेंगे । मेरी इतनी
विनती मानकर मेरी बात बनाओ और मुझ पर कृपा करके मुझे क्षमा कर दो ।
द्वापर युग का अंत और कलियुग की शुरूआत जब होगी, तब मैं बौद्ध शरीर धारण करूँगा । इसके बाद मैं उङीसा के राजा इंद्रमन के पास जाऊँगा, और अपना नाम जगन्नाथ धराऊँगा ।
द्वापर युग का अंत और कलियुग की शुरूआत जब होगी, तब मैं बौद्ध शरीर धारण करूँगा । इसके बाद मैं उङीसा के राजा इंद्रमन के पास जाऊँगा, और अपना नाम जगन्नाथ धराऊँगा ।
राजा
इन्द्रमन जब मेरा अर्थात जगन्नाथ मंदिर समुद्र के किनारे बनवायेगा तब उसे समुद्र
का पानी ही गिरा देगा उससे टकरा कर बहा देगा । इसका विशेष कारण यह होगा कि
त्रेतायुग में मेरे विष्णु का अवतार राम वहाँ आयेगा, और वह
समुद्र से पार जाने के लिये समुद्र पर पुल बाँधेगा । इसी शत्रुता के कारण समुद्र
उस मंदिर को डुबा देगा ।
अतः
ज्ञानीजी, आप ऐसा विचार बनाकर पहले वहाँ समुद्र के
किनारे जाओ । आपको देखकर समुद्र रुक जायेगा आपको लाँघकर समुद्र आगे नहीं जायेगा । इस
प्रकार मेरा वहाँ मंदिर स्थापित करो, उसके बाद अपना अंश
भेजना ।
आप
भवसागर में अपना मतपंथ चलाओ, और सत्यपुरुष के सतनाम
से जीवों का उद्धार करो, और अपने मतपंथ का चिह्न छाप मुझे
बता दो, तथा सत्यपुरुष का नाम भी सुझा समझा दो । बिना इस छाप
के जो जीव भवसागर के घाट से उतरना चाहेगा
वह हंस
के मुक्ति घाट का मार्ग नहीं पायेगा ।
मैंने
कहा - निरंजन, जैसा तुम मुझसे
चाहते हो, वैसा तुम्हारे चरित्र को मैंने अच्छी तरह समझ लिया
है । तुमने बारह पंथ चलाने की जो बात कही है, वह मानो तुमने
अमृत में विष डाल दिया है । तुम्हारे इस चरित्र को देखकर तुम्हें मिटा ही डालूँ, और अब पलट कर अपनी कला दिखाऊँ, तथा यम से जीव का
बँधन छुङाकर अमरलोक ले जाऊँ । मगर सतपुरुष का आदेश ऐसा नहीं है । यही सोचकर मैंने निश्चय किया है कि अमरलोक उस जीव को ले जाकर पहुँचाऊँगा
जो मेरे सत्यशब्द को मजबूती से ग्रहण करेगा ।
अन्यायी
निरंजन, तुमने जो बारह पंथ चलाने की माँग कही है, वह मैंने तुमको दी ।
पहले
तुम्हारा दूत धर्मदास के यहाँ प्रकट होगा, पीछे से
मेरा अंश आयेगा । समुद्र के किनारे मैं चला जाऊँगा, और
जगन्नाथ मंदिर भी बनवाऊँगा । उसके बाद अपना सत्यपंथ चलाऊँगा,
और जीवों को सत्यलोक भेजूँगा ।
निरंजन
बोला - ज्ञानीजी, आप मुझे
सत्यपुरुष से अपने मेल का छाप निशान दीजिये, जैसी पहचान आप
अपने हंस जीवों को दोगे । जो जीव मुझको उसी प्रकार की निशान पहचान बतायेगा, उसके पास काल नहीं आयेगा । अतः साहिब दया करके सतपुरुष की नाम निशानी
मुझे दें ।
मैंने
कहा - धर्मराय निरंजन, जो मैं
तुम्हें सत्यपुरुष के मेल की निशानी समझा दूँ, तो तुम जीवों
के उद्धार कार्य में विघ्न पैदा करोगे तुम्हारी इस चाल को मैंने समझ लिया । काल, तुम्हारा ऐसा कोई दाव मुझ पर नहीं चलने वाला । धर्मराय मैंने तुम्हें
साफ़ शब्दों में बता दिया कि अपना अक्षर ‘नाम’ मैंने गुप्त रखा है । जो कोई हमारा नाम लेगा तुम उसे छोङकर अलग हो जाना । जो
तुम हंस जीवों को रोकोगे, तो काल तुम रहने नहीं पाओगे ।
धर्मराय
निरंजन बोला - ज्ञानीजी, आप
संसार में जाईये, और सत्यपुरुष के नाम द्वारा जीवों को
उद्धार करके ले जाईये । जो हंसजीव आपके गुण गायेगा, मैं उसके
पास कभी नहीं आऊँगा । जो जीव आपकी शरण में आयेगा वह मेरे सिर पर पाँव रखकर भवसागर
से पार होगा । मैंने तो व्यर्थ आपके सामने मूर्खता की, तथा
आपको पिता समान समझ कर लङकपन किया ।
बालक
करोङों अवगुण वाला होता है, परन्तु पिता उनको ह्रदय में नहीं रखता । यदि
अवगुणों के कारण पिता बालक को घर से निकाल दे, फ़िर उसकी
रक्षा कौन करेगा ।
इसी
प्रकार मेरी मूर्खता पर यदि आप मुझे निकाल देंगे, तो फ़िर
मेरी रक्षा कौन करेगा?
ऐसा
कहकर निरंजन ने उठकर शीश नवाया, और मैंने संसार की और
प्रस्थान किया ।
कबीर
ने धर्मदास से कहा - जब मैंने निरंजन को व्याकुल देखा, तब मैंने वहाँ से प्रस्थान किया और भवसागर की ओर चला आया ।
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