शुक्रवार, जुलाई 13, 2018

कौआ और कोयल से भी सीखो


कबीर बोले - धर्मदास, कोयल के बच्चे का स्वभाव सुनो, और उसके गुणों को जानकर विचार करो । कोयल मन से चतुर तथा मीठी वाणी बोलने वाली होती है जबकि उसका वैरी कौवा पाप की खान होता है ।

कोयल कौवे के घर (घोंसले) में अपना अण्डा रख देती है । विपरीत गुण वाले दुष्ट मित्र कौवे के प्रति कोयल ने अपना मन एक समान किया । तब सखा मित्र सहायक समझ कर कौवे ने उस अण्डे को पाला और वह काल-बुद्धि कागा (कौवा) उस अण्डे की रक्षा करता रहा ।

समय के साथ कोयल का अण्डा बङकर पक्का हुआ और समय आने पर फ़ूट गया ।
तब उससे बच्चा निकला । कुछ दिन बीत जाने पर कोयल के बच्चे की आँखे ठीक से खुल गयी, और वह समझदार होकर जानने समझने लगा फ़िर कुछ ही दिनों में उसके पँख भी मजबूत हो गये । तब कोयल समय समय पर आ आकर उसको शब्द सुनाने लगी ।

वह अपना निज शब्द सुनते ही कोयल का बच्चा जाग गया, यानी सचेत हो गया ।
और सच का बोध होते ही उसे अपने वास्तविक कुल का वचन वाणी प्यारी लगी ।
फ़िर जब भी कागा कोयल के बच्चे को दाना खिलाने घुमाने ले जाये, तब तब कोयल अपने उस बच्चे को वह मीठा मनोहर शब्द सुनाये । कोयल के बच्चे में जब उस शब्द द्वारा अपना अंश अंकुरित हुआयानी उसे अपनी असली पहचान का बोध हुआ, तो उस बच्चे का ह्रदय कौवे की ओर से हट गया, और एक दिन कौवे को अंगूठा दिखा कर वह कोयल का बच्चा उससे पराया होकर उङ चला ।

कोयल का बच्चा अपनी वाणी बोलता हुआ चला, और तब घबरा कर उसके पीछे पीछे कागा व्याकुल बेहाल होकर दौङा । उसके पीछे पीछे भागता हुआ कागा थक गया परन्तु उसे नहीं पा सका, फ़िर वह बेहोश हो गया, और बाद में होश आने पर निराश होकर अपने घर लौट आया । कोयल का बच्चा जाकर अपने परिवार से मिलकर सुखी हो गया, और निराश कागा झक मारकर रह गया ।

धर्मदास, जिस प्रकार कोयल का बच्चा होता है कि वह कौवे के पास रहकर भी अपना शब्द सुनते ही उसका साथ छोङकर अपने परिवार से मिल जाता है । इसी विधि से जब कोई भी समझदार जीव मनुष्य अपने निजनाम और निजआत्मा की पहचान के लिये सचेत हो जाता है, तो वह मुझ (सदगुरू) से स्वयं ही मिल जाता है, और अपने असली घर परिवार सत्यलोक में पहुँच जाता है, तब मैं उसके एक सौ एक वंश तार देता हूँ ।

कोयल सुत जस शूरा होई, यह विधि धाय मिले मोहि कोई ।
निज घर सुरत करे जो हंसा, तारों ताहि एकोत्तर वंशा ।

धर्मदास, इसी तरह कोयल के बच्चे की भांति कोई शूरवीर मनुष्य काल-निरंजन की असलियत को जानकर सदगुरू के प्रति शब्द (नाम उपदेश) के लिये मेरी तरफ़ दौङता है, और निज घर सत्यलोक की तरफ़ अपनी सुरति (पूरी एकाग्रता) रखता है । मैं उसके एक सौ एक वंश तार देता हूँ ।

कबीर बोले - धर्मदास,  कौवे की नीच चाल-चलन नीच बुद्धि को छोङकर हंस की रहनी, सत्य आचरण, सदगुण, प्रेम, शील स्वभाव, शुभ कार्य जैसे उत्तम लक्षणों को अपनाने से मनुष्य जीव सत्यलोक जाता है ।

जिस प्रकार कागा की कर्कश वाणी कांव कांव किसी को अच्छी नहीं लगती । परन्तु कोयल की मधुर वाणी कुहुकुहु सबके मन को भाती है । इसी प्रकार कोयल की तरह हंस-जीव विचार पूर्वक उत्तम वाणी बोले ।

जो कोई अग्नि की तरह जलता हुआ क्रोध में भरकर भी सामने आये तो हंस-जीव को शीतल जल के समान उसकी तपन बुझानी चाहिये । ज्ञान अज्ञान की यही सही पहचान है । जो अज्ञानी होता है, वही कपटी उग्र तथा दुष्ट बुधि वाला होता है ।

गुरू का ज्ञानी शिष्य शीतल और प्रेमभाव से पूर्ण होता है । उसमें सत्य, विवेक, संतोष आदि सदगुण समाये होते हैं । ज्ञानी वही है जो झूठ, पाप, अनाचार, दुष्टता, कपट आदि दुर्गुणों से युक्त दुष्ट बुद्धि को नष्ट कर दे, और काल-निरंजन रूपी मन को पहचान कर उसे भुला दे । उसके कहने में न आये ।

जो ज्ञानी होकर कटु वाणी बोलता है, वह ज्ञानी अज्ञान ही बताता है, उसे अज्ञानी ही समझना चाहिये । जो मनुष्य शूरवीर की तरह धोती खोंस कर मैदान में लङने के लिये तैयार होता है, और युद्ध भूमि में आमने सामने जाकर मरता है । तब उसका बहुत यश होता है, और वह सच्चा वीर कहलाता है । इसी प्रकार जीवन में अज्ञान से उत्पन्न समस्त पाप दुर्गुण और बुराईयों को परास्त करके जो ज्ञान विज्ञान उत्पन्न होता है, उसी को ज्ञान कहते हैं ।

मूर्ख अज्ञानी के ह्रदय में शुभ सतकर्म नहीं सूझता, और वह सदगुरू का सारशब्द और सदगुरू के महत्व को नहीं समझता । मूर्ख इंसान से अधिकतर कोई कुछ कहता नहीं है । यदि किसी नेत्रहीन का पैर यदि विष्ठा (मल) पर पङ जाये तो उसकी हँसी कोई नहीं करता । लेकिन यदि आँख होते हुये भी किसी का पैर विष्ठा से सन जाये, तो सभी लोग उसको ही दोष देते हैं । धर्मदास, यही ज्ञान और अज्ञान है ।

ज्ञान और अज्ञान विपरीत स्वभाव वाले ही होते हैं अतः ज्ञानी पुरुष हमेशा सदगुरू का ध्यान करे और सदगुरू के सत्य शब्द (नाम या महामंत्र) को समझे । सबके अन्दर सदगुरू का वास है पर वह कहीं गुप्त तो कहीं प्रकट है । इसलिये सबको अपना मानकर जैसा मैं अविनाशी आत्मा हूँ । वैसे ही सभी जीवात्माओं को समझे, और ऐसा समझ कर समान भाव से सबसे नमन करे, और ऐसी गुरूभक्ति की निशानी लेकर रहे ।

रंग कच्चा होने के कारण, इस देह को कभी भी नाशवान होने वाली जानकर भक्त प्रहलाद की तरह अपने सत्य संकल्प में दृढ़ मजबूत होकर रहे । यद्यपि उसके पिता हिरण्यकश्यप ने उसको बहुत कष्ट दिये । लेकिन फ़िर भी प्रहलाद ने अडिग होकर हरि गुण वाली प्रभु भक्ति को ही स्वीकार किया । ऐसी ही प्रहलाद कैसी पक्की भक्ति करता हुआ सदगुरू से लगन लगाये रहे, और चौरासी में डालने वाली मोह माया को त्याग कर भक्तिसाधना करे । तब वह अनमोल हुआ हंस जीव अमरलोक सत्यलोक में निवास पाता है, और अटल होकर स्थिर होकर जन्म मरण के आवागमन से मुक्त हो जाता है ।


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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।