कबीर
साहब बोले - धर्मदास, तुम विचार करो
पीछे ऐसा वर्णन हो चुका है कि अग्नि, पवन, जल, प्रथ्वी और प्रकाश कूर्म के उदर से प्रकट हुये ।
उसके उदर से ये पाँचो अंश लिये, तथा तीनों सिर काटने से सत,
रज, तम तीनों गुण प्राप्त हुये । इस प्रकार
पाँच तत्व और तीन गुण प्राप्त होने पर निरंजन ने सृष्टि
रचना की ।
फ़िर
अष्टांगी और निरंजन के परस्पर रति प्रसंग से अष्टांगी को गुण एवं तत्व समान करके
दिये, और अपने अंश उत्पन्न किये । इस प्रकार पाँच
तत्व और तीन गुण को देने से उसने संसार की रचना की ।
वीर्य
शक्ति की पहली बूँद से ब्रह्मा हुये, उन्हें
रजोगुण और पाँच तत्व दिये । दूसरी बूँद से विष्णु हुये,
उन्हें सतगुण और पाँच तत्व दिये । तीसरी बूँद से शंकर हुये,
उन्हें तमोगुण और पाँच तत्व दिये । पाँच तत्व, तीन गुण के
मिश्रण से ब्रह्मा, विष्णु, महेश के
शरीर की रचना हुयी ।
इसी
प्रकार सब जीवों के शरीर की रचना हुयी । उससे ये पाँच तत्व और तीन गुण परिवर्तनशील
और विकारी होने से बारबार सृजन और प्रलय यानी जीवन और मरण होता है । सृष्टि की
रचना के इस ‘आदिरहस्य’ को वास्तविक
रूप से कोई नहीं जानता ।
धर्मदास, कबीर साहब आगे कहने लगे ।
फ़िर
निरंजन बोला - अष्टांगी कामिनी, मेरी
बात सुन, और जो मैं कहूँ, उसे मान । अब
जीव बीज सोऽहंग तुम्हारे पास है, उसके द्वारा सृष्टि रचना का
प्रकाश करो । हे रानी सुन, अब मैं कैसे क्या करूँ । आदिभवानी, ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों
पुत्र तुमको सौंप दिये, और अपना मन सत्यपुरुष की सेवा भक्ति
में लगा दिया है । तुम इन तीनों बालकों को लेकर राज करो,
परन्तु मेरा भेद किसी से न कहना ।
मेरा
दर्शन ये तीनों पुत्र न कर सकेंगे चाहे मुझे खोजते खोजते अपना जन्म ही क्यों न
समाप्त कर दें । सोच समझकर सब लोगों को ऐसा मत
सुदृढ कराना कि सत्यपुरुष का भेद कोई प्राणी जानने न पाये । जब ये तीनों पुत्र
बुद्धिमान हो जायें तब उन्हें समुद्र मंथन का ज्ञान देकर समुद्र मंथन के लिये
भेजना ।
इस तरह
निरंजन ने अष्टांगी को बहुत प्रकार से समझाया और फ़िर अपने आप गुप्त हो गया उसने
शून्यगुफ़ा में निवास किया । वह जीवों के ‘ह्रदयाकाश
रूपी’ शून्यगुफ़ा में रहता है तब उसका भेद कौन ले सकता है?
वह
गुप्त होकर भी सबके साथ है, जो सबके भीतर है उस मन को ही निरंजन जानो ।
जीवों
के ह्रदय में रहने वाला यह मन, निरंजन सत्यपुरुष
परमात्मा के रहस्यमय ज्ञान के प्रति संदेह उत्पन्न कर उसे मिटाता है । यह अपने मत
से सभी को वशीभूत करता है, और स्वयं की बङाई प्रकट करता है ।
सभी जीवों के ह्रदय में बसने वाला यह मन, काल-निरंजन का ही
रूप है ।
सबके
साथ रहता हुआ भी ये मन पूर्णतया गुप्त है, और किसी
को दिखाई नहीं देता ।
ये
स्वाभाविक रूप से अत्यन्त चंचल है, और सदा
सांसारिक विषयों की ओर दौङता है । विषयसुख और भोग प्रवृति के कारण मन को चैन कहाँ
है? यह तो दिन-रात, सोते-जागते अपनी अनन्त इच्छाओं की पूर्ति के लिये
भटकता ही रहता है, और मन के वशीभूत होने के कारण ही जीव
अशांत और दुखी होता है । इसी कारण उसका पतन होकर जन्म-मरण का
बंधन बना हुआ है ।
जीव का
मन ही उसके दुखों, भोगों और जन्म मरण का कारण है अतः मन को वश
में करना ही सभी दुखों और जन्म मरण के बँधन से मुक्त होने का उपाय है । जीव तथा
उसके ह्रदय के भीतर मन दोनों एक साथ है । मतवाला और
विषयगामी मन काल-निरंजन के अंग स्पर्श करने से जीव बुद्धिहीन हो गये । इसी से
अज्ञानी जीव कर्म, अकर्म के करते रहने से तथा उनका फ़ल भोगते
रहने के कारण ही जन्म जन्मांतर तक उनका उद्धार नहीं हो पाता ।
यह मन
काल जीव को सताता है । यह इन्द्रियों को प्रेरित कर विभिन्न प्रकार के पापकर्मों
में लगाता है । यह स्वयं पाप, पुण्य के कर्मों की काल
कुचाल चलता है,
और
फ़िर जीव को दुख रूपी दण्ड देता है ।
उधर जब
ये तीनों बालक ब्रह्मा, विष्णु, महेश सयाने और
समझदार हुये तो उनकी माता अष्टांगी ने उन्हें समुद्र मथने के लिये भेजा । लेकिन वे
बालक खेल खेलने में मस्त थे अतः समुद्र मथने नहीं गये ।
कबीर
साहब बोले - धर्मदास, उसी समय एक
तमाशा हुआ निरंजन राव ने योग धारण किया । उसमें उसने पवन यानी सांस खींचकर पूरक
प्राणायाम से आरम्भ कर.. पवन ठहरा कर कुम्भक प्राणायाम बहुत
देर तक किया ।
फ़िर
जब निरंजन कुम्भक त्याग कर रेचन क्रिया से पवन रहित हुआ तब उसकी सांस के साथ वेद
बाहर निकले । वेद उत्पत्ति के इस रहस्य को कोई बिरला विद्वान ही जानेगा ।
वेद ने
निरंजन की स्तुति की और कहा - हे निर्गुणनाथ, मुझे क्या आज्ञा है?
निरंजन
बोला - तुम जाकर समुद्र में निवास करो तथा जिसका
तुमसे भेंट हो, उसके पास चले जाना ।
वेद को
आज्ञा देते हुये काल-निरंजन की आवाज तो सुनायी दी, पर वेद ने
उसका स्थूल रूप नहीं देखा उसने केवल अपना ज्योतिस्वरूप ही दिखाया । उसके तेज से
प्रभावित होकर आज्ञानुसार वेद चले गये फ़िर अंत में उस तेज से विष की उत्पत्ति
हुयी ।
इधर
चलते हुये वेद वहाँ जा पहुँचे, जहाँ निरंजन ने समुद्र
की रचना की थी । वे सिंधु के मध्य में पहुँच गये । फ़िर निरंजन ने समुद्र मंथन की
युक्ति का विचार किया ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें