मंगलवार, अगस्त 17, 2010

अक्षर खण्ड रमैनी 5

नव दरवाजा भरम विलास, भरमहि बाबन बहे बतास ।
कनउज बाबन भूत समान, कहं लगि गनो सो प्रथम उङान ।
माया ब्रह्म जीव अनुमान, मानत ही मालिक बौरान ।
अकबक भूत बके परचंड, व्यापि रहा सकलो ब्रह्मंड ।
ई भर्म भूत की अकथ कहानी, गोत्यो जीव जहाँ नहि पानी ।
तनक तनक पर दौरै बौरा, जहाँ जाये तहाँ पावे न ठौरा ।

योगी राम भक्त बाबरा, ज्ञानी फ़िरे निखट्टू ।
संसारी को चैन नही है, ज्यों सराय को टट्टू । 17

इत उत दौरै सब संसार, छुटे न भरम किया उपचार ।
जरै जीव को बहुरि जरावै, काटे ऊपर लोन लगावै ।
योगी ऐसे हाल बनाई, उल्टी बत्ती नाक चलाई ।
कोई विभूति मृगछाला डारे, अगम पन्थ की राह निहारे ।
काहू को जल मांझ सुतावै, कहंरत हीं सब रैन गवांवै ।
भगती नारी कीन श्रंगार, बिन प्रिया परचै सबै अंगार ।
एक गर्भ ज्ञान अनुमान, नारि पुरुष का भेद न जान ।
संसारी कहूँ कल नहि पावै, कहरत जग में जीव गंवावै ।
चारि दिशा में मन्त्री झारे, लिये पलीता मुलना हारे ।
जरै न भूत बङो बरियारा, काजी पण्डित पढ़ि पढ़ि हारा ।
इन दोनों पर एकै भूत, झारेंगे क्या मां की चूत ।

भूत न उतरे भूत सों, सन्तों करो विचार ।
कहैं कबीर पुकार के, बिनु गुरु नहि निस्तार । 18

परम प्रकाश भास जो, होत प्रोढ़ विशेष ।
तद प्रकाश संभव भई, महाकाश सो शेष । 19

झांई संभव बुद्धि ले, करी कल्पना अनेक ।
सो परकाशक जानिये, ईश्वर साक्षी एक । 20

विषम भई संकल्प जब, तदाकार सो रूप ।
महा अंधेरी काल सो, परे अविद्या कूप । 21

महा तत्व त्रीगुण पाँच तत्व, समिष्ठि व्यष्ठि परमान ।
दोय प्रकार होय प्रगटे, खंड अखंड सो जान । 22

बुधवार, अगस्त 11, 2010

अक्षर खण्ड रमैनी 4


भरम जीव परमातम माया, भरम देह औ भरम निकाया ।
अनहद नाद औ ज्योति प्रकास, आदि अन्त लौ भरम हि भास ।
इत उत करे भरम निरमान, भरम मान औ भरम अमान ।
कोहं जगत कहाँ से भया, ई सब भरम अती निरमया ।
प्रलय चारि भ्रम पुण्य औ पाप, मन्त्र जाप पूजा भ्रम थाप ।
बाट बाट सब भरम है, माया रची बनाय ।
(बाप पूत दोऊ भरम है, माया रची बनाय)
भेद बिना भरमे सकल, गुरु बिन कहाँ लखाय । 12

बाप पूत दोऊ भरम, आध कोश नव पांच ।
बिन गुरु भरम न छूटे, कैसे आवे सांच । 13

कलमा बांग निमाज गुजारै, भरम भई अल्लाह पुकारे ।
अजब भरम यक भई तमासा, ला मुकाम बेचून निवासा ।
बेनमून वह सबके पारा, आखिर ताको करौ दीदारा ।
रगरै महजिद नाक अचेत, निंदे बुत परस्त तेहि हेत ।
बाबन तीस बरन निरमाना, हिन्दू तुरक दोऊ भरमाना । 

भरमि रहे सब भरम महँ, हिन्दू तुरक बखान ।
कहहिं ‘कबीर’ पुकार कै, बिनु गुरु को पहिचान । 14

भरमत भरमत सबै भरमाने, रामसनेही बिरला जाने ।
तिरदेवा सब खोजत हारे, सुर नर मुनि नहि पावत पारे ।
थकित भया तब कहा बेअन्ता, विरहनि नारि रही बिनु कन्ता ।
कोटिन तरक करें मन माही, दिल की दुविधा कतहुं न जाही ।
कोई नख शिख जटा बढ़ावैं, भरमि भरमि सब जहँ तहँ धावैं ।
बाट न सूझै भई अंधेरी, होय रही बानी की चेरी ।
नाना पन्थ बरनि नहि जाई, जाति वरण कुल नाम बङाई ।
(जाति कर्म गुन नाम बङाई)
रैन दिवस वे ठाढ़े रहही, वृक्ष पहार काहि नहीं तरहीं ।

खसम न चीन्हे बाबरी, पर पुरुष लौ लीन ।
कहंहिं कबीर पुकार के, परी न बानी चीन । 15

कन रस की मतवाली नारि, कुटनी से खोजे लगवारि ।
कुटनी आँखिन काजर दियऊ, लागि बतावन ऊपर पियऊ ।
काजर ले के ह्वै गयी अन्धी, समुझ न परी बात की संधी ।
बाजे कुटनी मारे भटकी, ई सब छिनरो ता महं अटकी ।
विरहिन होय के देह सुखावै, कोई शिर महं केश बढ़ावै ।
मानि मानि सब कीन्ह सिंगारा, बिन पिय परसै सब अंगारा ।

अटकी नारि छिनारि सब, हरदम कुटनी द्वार ।
खसम न चीन्है बाबरी, घर घर फ़िरत खुवार । 16

अक्षर खण्ड रमैनी 3


पहिले एक शब्द समुदाय, बाबन रूप धरे छितराय ।
इच्छा नारि धरे तेहि भेष, ताते ब्रह्मा विष्णु महेश ।
चारिउ उर पुरु बाबन जागे, पंच अठरह कंठहि लागे ।
तालू पंच शून्य सो आय, दश रसना के पूत कहाय ।
पांच अधर अधर ही मा रहै, शुन्ने कंठ समोधे वहै ।
ओठ कंठ ले प्रगटे ठौर, बोलन लागे और के और ।

एक शब्द समुदाय जो, जामे चार प्रकार ।
काल शब्द, संधि शब्द, झांई औ पुनि सार । 9

पांच तीनि नौ छौ औ चार, और अठारह करे पुकार ।
कर्म धर्म तीरथ के भाव, ई सब काल शब्द के दाव ।
सोऽहं आत्मा ब्रह्म लखाव, तत्वमसी मृत्युंजय भाव ।
पंचकोश नवकोश बखान, सत्य झूठ में करे अनुमान ।
ईश्वर साक्षी जाननिहार, ये सब संधिक कहै विचार ।
कारज कारण जहाँ न होय, मिथ्या को मिथ्या कहि सोय ।
बैन चैन नहि मौन रहाय, ई सब झांई दीन भुलाय ।
कोइ काहू का कहा न मान, जो जेहि भावे तहं अरुझान ।
परे जीव तेहि यम के धार, जौं लो पावे शब्द न सार ।
जीव दुसह दुख देखि दयाल, तब प्रेरी प्रभु परख रिसाल ।

परखाये प्रभु एक को, जामे चार प्रकार ।
काल संधि जांई लखी, लखी शब्द मत सार । 10

प्रथमे एक शब्द आरूढ़, तेहि तकि कर्म करे बहु मूढ़ ।
ब्रह्म भरम होय सब में पैठा, निरमल होय फ़िरे बहु ऐंठा ।
भरम सनातन गावे पांच, अटकि रहै नर भव की खांच ।
आगे पीछे दहिने बांयें, भरम रहा है चहुदिशि छाये ।
उठी भर्म नर फ़िरै उदास, घर को त्यागि कियो वनवास ।
भरम बढ़ी सिर केश बढ़ावे, तके गगन कोई बांह उठावे ।
द्वै तारी कर नासा गहै, भरमि क गुरु बतावे लहै ।
भरम बढ़ी अरु घूमन लागे, बिनु गुरु पारख कहु को जागे ।

कहैं कबीर पुकार के, गहहु शरण तजि मान ।
परखावे गुरु भरम को, वानि खानि सहिदानि । 11

अक्षर खण्ड रमैनी 2


धोखा प्रथम परखिये भाई, नाम जाति कुल कर्म बङाई ।
क्षिति जल पावक मरुत अकाश, ता महं पंच विषय परकाश ।
तत्व पांच में श्वासा सार, प्राण अपान समान उदार ।
और व्यान बाबन संचार, निजनिज थल निज कारज कार ।
इंगला पिंगला औ सुखमनी, इकइस सहस छौ सत सो गनी ।
निगम अगम औ सदा बतावे, श्वासा सार सरोदा गावे ।

धोखा अंधेरी पाय के, या विधि भया शरीर ।
कल्पेउ कारता एक पुनि, बढी कर्म की पीर । 5

योग्य जप तप ध्यान अलेख, तीरथ फ़िरत धरे बहु भेख ।
योगी जंगम सिद्ध उदास, घर को त्यागि फ़िरे बनबास ।
कन्दमूल फ़ल करत अहार, कोइ कोई जटा धरे शिर भार ।
मन मलीन मुख लाये धूर, आगे पीछे अग्नि औ सूर ।
नग्न होय नर खोरि न फ़िरे, पीतर पाथर में शिर धरे ।

काल शब्द के सोर ते, होर परी संसार ।
देखा देखी भागिया, कोई न करे विचार । 6

जब पुनि आय खसी यह बानि । तब पुनि चित्त मा कियो अनुमान ।
महीं ब्रह्म कर्ता जग केर, परे सो जाल जगत के फ़ेर ।
पांच तीन गुण जग उपजाया, सो माया मैं ब्रह्म निकाया ।
उपजे खपे जग विस्तारा, मैं साक्षी सब जाननिहारा ।
मो कह जानि सके नहि कोय, जौ पै विधि हरि शंकर होय ।
अस सन्धिक की परी बिकार, बिनु गुरु कृपा न होय उवार ।
मग्न ब्रह्म सन्धिक के ज्ञान, अस जानि अब भया भ्रम हान ।

संधि शब्द है भर्म मो, भूलि रहा कित लोग ।
परखेउ धोखा भेव नहि, अन्त होत बङ सोग । 7

जो कोई संधिक धोखा जान, सो पुनि उलटि कियो अनुमान ।
मन बुद्धि इन्द्रिय जाय न जान, निरबचनी सो सदा अमान ।
अकल अनीह अबाध अभेद, नेति नेति कै गावे बेद ।
सोऽहं वृत्ति अखंडित रहै, एक दोय अब को तहाँ कहै ।
जानि परी तब नित्याकार, झांईं सो भ्रम महा बेकार ।

संभव शब्द अमान जो, झांई प्रथम बेकार ।
परखेउ धोखा भेव निज, गुरु की दया उवार । 8

अक्षर खण्ड रमैनी


               ॥अक्षर खण्ड रमैनी॥

प्रथम शब्द है शून्याकार, परा अव्यक्त सो कहै विचार ।
अंतःकरण उदय जब होय, पश्यन्ति अर्धमात्रा सोय ।
स्वर सो कंठ मध्यमा जान, चौंतिस अक्षर मुख स्थान ।
अनवनि बानी तेहि के माहि, बिन जाने नर भटका खाहिं ।
बानी अक्षर स्वर समुदाय, अर्ध पश्यन्ति जात नसाय ।
शुन्याकार सो प्रथमा रहै, अक्षर ब्रह्म सनातन कहै ।
निवृति प्रवृति है शब्दाकार, प्रणव जाने इहे विचार ।

अंकुलाहट के शब्द जो, भई चार सो भेष ।
बहुबानी बहुरूप के, प्रथक प्रथक सब देश । 1

अनवनि बानी चार प्रकार, काल संधि झांई औ सार ।
हेतु शब्द बूझिये जोय, जानिय यथारथ द्वारा सोय ।
भ्रमिक झांई संधिक औ काल, सार शब्द काटे भ्रम जाल ।
द्वारा चार अर्थ परमान, पदारथ व्यंगाथ पहिचान ।
भावार्थ ध्वन्यार्थ चार, द्वारा शब्द कोई लखे विचार ।
परा पराइति मुख सो जान, मोरे सोरह कला निदान ।

बिन जानै सोरह कला, शब्द ही शब्द कौ आय ।
शब्द सुधार पहिचानिये, कौन कहा वौ आय । 2

अक्षर वेद पुराण बखान, धरम करम तीरथ अनुमान ।
अक्षर पूजा सेवा जाप, और महातम जेते थाप ।
यही कहावत अक्षर काल, जाए गडी उर होय के भाल ।
ओंऽहं सोंऽहं आतमराम, माया मन्त्रादिक सब काम ।
ये सब अक्षर संधि कहै, जेहि मा निसवासर जिव रहै ।
निर्गुण अलख अकह निर्वाण, मन बुद्धि इन्द्री जाय न जान ।
विधि निषेध जहँ बनिता दोय, कहैं कबीर पद झांईं सोय ।

प्रथमे झांईं झांकते, पैठा संधिक काल ।
पुनि झांईं की झांईं रही, गुरु बिन सके को टाल । 3

प्रथम ही संभव शब्द अमान, शब्द ही शब्द कियो अनुमान ।
मान महातम मान भुलान, मानत मानत बाबन ठान ।
फ़ेरा फ़िरत भयो भ्रमजाल, देहादिक जग भये विशाल ।
देह भई ते देहिक होय, जगत भई ते कर्ता कोय ।
कर्ता कारण कर्महि लाग, घर घर लोग कियो अनुराग ।
छौ दरशन वर्णश्रम चार, नौ छौ भये पाखंड बेकार ।
कोई त्यागी अनुरागी कोय, विधि निषेध मा बधिया दोय ।
कल्पेउ ग्रन्थ पुराण अनेक, भरमि रहै सब बिना विवेक ।

भरमि रहा सब शब्द में, सब्दी शब्द न जान ।
गुरु कृपा निज पर्ख बल, परखो धोखा ज्ञान । 4

बेचूने जग चूनिया


बोलत ही पहचानिये साहु चोर का घाट ।
अन्तर घट की करनी निकले मुष की बाट ।

दिल का महरमी कोइ न मिला जो मिला सो गरजी ।
कहैं कबीर असमानहिं फाटा क्यों कर सोवै दरजी ।

ई जग जरते देषिया अपनी अपनी आगि ।
ऐसा कोई ना मिला जासो रहिये लागि ।

बना बनाया मानवा बिना बुद्धि बेतूल ।
काह कहा लाल ले कीजिए बिना बास का फूल ।

सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप ।
जाके हृदया साँच है ताके हृदया आप ।

कारे बडे कुल ऊपजै जोरे बडो बुद्धि नाहिं ।
जैसा फूल हजार का मिथ्या लगि झरिजाहि ।

करते किया न बिधि किया रबि ससि परी न दृष्टि ।
तीन लोक में है नहीं जाने सकलो सृष्टि ।

सुरपुर पेड अगाध फल पंछी परिया झूर ।
बहुत जतन कै षोजिया फल मीठा पै दूर ।

बैठा रहै सो बानियाँ ठाढ रहै सो ग्वाल ।
जागत रहै सो पाहरू तेहि धरि षायो काल ।

आगे आगे धौं जरै पाछे हरियर होए ।
बलिहारी तेहि वृक्षा को जर काटे होए ।

जन्म मरन बालापना चौथे बृद्ध अवस्था आए ।
ज्यों मूसा को तकै बिलाई अस जम जीवहि घात लगाए ।

है बिगरायल अवर का बिगरो नाहिं बिगारे ।
घाव काहे पर घालिये जित तित प्रान हमारो ।

पारस परसै कंचन भौ पारस कधी न होए ।
पारस से अर्स पर्स ते सुबरन कहावे सोए ।

ढूँढत ढूँढत ढूँढिया भया सो गूनागून ।
ढूँढत ढूँढत न मिला तब हारि कहा बेचून ।

बेचूने जग चूनिया सोई नूर निनार ।
आषिर ताके बषत में किसका करो दिदार ।

सोई नूर दिल पाक है सोई नूर पहिचान ।
जाको किया जग हुआ सो बेचून क्यों जान ।

ब्रह्मा पूछे जननि से कर जोरे सीस नवाए ।
कौन बरन वह पुरुस है माता कहु समुझाए ।

रेष रूप वै है नहीं अधर धरी नहिं देह ।
गगन मंदिल के मध्य में निरषो पुरुष बिदेह ।

धारेउ ध्यान गगन के माँहीँ लाये बज्र किवार ।
देषि प्रतिमा आपनी तीनिउ भये निहाल ।

ए मन तो सीतल भया जब उपजा ब्रह्म ग्यान ।
जेहि बसंदर जग जरै सो पुनि उदक समान ।

जासो नाता आदि का, बिसर गयो सो ठौर ।
चौरासी के बसि परा, कहै और की और ।

अलष लषौं अलषैं लषौं, लषौं निरंजन तोहि ।
हौं कबीर सबको लषौं, मोको लषै न कोइ ।

हम तो लषा तिहु लोक में, तू क्यों कहा अलेष ।
सार सब्द जाना नहीं, धोषे पहिरा भेष ।

साषी आँषी ग्यान की, समुझ देषि मन माहिं ।
बिनु साषी संसार का, झगरा छूटत नाहिं ।

WELCOME

मेरी फ़ोटो
Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।