शुक्रवार, अप्रैल 06, 2012

काल निरंजन जग भरमावे




सृष्टि रचना पर कबीर धर्मदास संवाद

धर्मदास यह जग बौराना, कोई न जाने पद निरवाना।

यह कारन मैं कथा पसारा, जग से कहियो राम न्यारा।

यही ज्ञान जग जीव सुनाओ, सब जीवों का भरम नशाओ।

अब मैं तुमसे कहों चिताई, त्रयदेवन की उत्पत्ति भाई।

कुछ संक्षेप कहों गुहराई, सब संशय तुम्हरें मिट जाई।

भरम गये जग वेद पुराना, आदिराम का भेद न जाना।

राम राम सब जगत बखाने, आदिराम कोई बिरला जाने।

ज्ञानी सुने सो ह्रदय लगाई, मूरख सुने सो गम्य ना पाई।

माँ अष्टांगी पिता निरंजन, वे जम दारुण वंशन अंजन।

पहले कीन्ह निरंजन राई, पीछे से माया उपजाई।

माया रूप देख अति शोभा, देव निरंजन तन मन लोभा।

कामदेव धर्मराय सताये, देवी को तुरत ही धर खाये।

पेट से देवी करी पुकारा, साहब मेरा करो उबारा।

टेर सुनी तब हम तहाँ आये, अष्टांगी को बन्द छुङाये।

सतलोक में कीन्हा दुराचार, काल निरंजन दीन्हा निकार।

माया समेत दिया भगाई, सोलह संख कोस दूरी पर आई।

अष्टांगी और काल अब दोई, मन्द कर्म से गये बिगोई।

धर्मराइ को हिकमत कीन्हा, नख रेखा से भग कर लीन्हा।

धर्मराय कीन्हा भोग विलासा, माया को तब रही आसा।

तीन पुत्र अष्टांगी जाये, ब्रह्मा विष्णु शिव नाम धराये।

तीन देव विस्तार चलाये, इनमें यह जग धोखा खाये।

पुरुष गम्य को कैसे पावे, काल निरंजन जग भरमावे।

तीन लोक अपने सुत दीन्हा, सुन्न निरंजन वासा लीन्हा।

अलख निरंजन सुन्न ठिकाना, ब्रह्मा विष्णु शिव भेद न जाना।

तीन देव सो उनको ध्यावे, निरंजन का पार ना पावे।

अलख निरंजन बङा बटपारा, तीन लोक जीव कीन्ह अहारा।

ब्रह्मा विष्णु शिव नहीं बचाये, सकल खाय पुनि धूरि उङाये।

तिनके सुत हैं तीनों देवा, आँधर जीव करत हैं सेवा।

अकालपुरुष काहू नहि चीन्हा, कालपुरुष सबही गहि लीन्हा।

ब्रह्मकाल सकल जग जाने, आदिब्रह्म को ना पहचाने।

तीनों देव और औतारा, ताको भजे सकल संसारा।

तीनों गुण का यह विस्तारा, धर्मदास मैं कहों पुकारा।

गुण तीनों की भक्ति में, भूल परो संसार। 

कहि कबीर निजनाम बिन, कैसे उतरे पार।

बैल बने हल में जुते



बैल बने हल में जुते, ले गाङी में दीन। 
तेली के कोल्हू रहे, पुनि घेर कसाई लीन। 
मांस कटा बोटी बिकी, चमढ़न मढ़ी नक्कार। 
कछुक करम बाकी रहे, तिस पर पङती मार।  

एक समय की बात है, कबीर साहब एक गांव में गये वहाँ उन्हें एक आदमी मिला। 
कबीर साहब ने कहा - भाई, कब तक जगत जंजाल में पङा रहेगा। प्रभु का नाम (गुरू द्वारा दिया गया नाम) जपा कर, अपना आगा सुधार। 

आदमी बोला - कबीर साहब, अभी मेरे छोटे छोटे बच्चे हैं । जब इनकी शादियां हो जायें तब नाम जपा करूंगा। 

काफ़ी समय बाद कबीर साहब फ़िर आये, और बोले - अब तो नाम जपा कर। 

वह बोला - बच्चे तो बङे हो गये इनकी शादियां भी हो गयीं। पर अभी इनके बच्चे छोटे छोटे हैं, ये बङे हो जाय, तब नाम जपूंगा। 

कबीर साहब चले गये। मगर अबकी बार जब आये, तो वह बूढ़ा मर चुका था। 

उन्होंने पूछा - यहाँ एक बाबा रहते थे, वे कहाँ गये?

घरवालों ने कहा - उन्हें तो मरे हुये बहुत समय हो गया, महाराज।

आत्मज्ञानी कबीर साहब जानते थे कि उसका पुत्र पोत्रों तथा और अन्य चीजों से बहुत मोह था। और ऐसा आदमी मरकर कहीं नहीं जाता, वरन माया मोहवश मरकर वहीं जन्म लेता है। मनुष्य जन्म मिल सकता नहीं अतः किसी पशु आदि योनि के रूप में वहीं होगा। 

उस बूढ़े को अपनी एक गाय से बेहद प्यार था। जब कबीर साहब ने अंतरध्यान होकर देखा तो वह बूढ़ा मरकर उसी गाय का बछङा बना था। (मरने के बाद भी जीवात्मा का लिंग परिवर्तित नहीं होता। स्त्री मादा रूप में, पुरुष नर रूप में ही जन्म लेगा। चाहे वे पशु, कीट, पतंगा कुछ भी क्यों न बनें) जब वह तीन साल का हुआ, तो अच्छा बैल बन गया। घर वालों ने उसे खेती कार्यों में खूब जोता। फ़िर उन्होंने उसे गाङीवान को बेच दिया। उसने भी उसे खूब जोता। 

जब वह गाङीवान के काम का भी ना रहा, तो उसने उसे एक कोल्हू चलाने वाले तेली को बेच दिया। बुढ़ापा हो जाने के बाद भी तेली ने उसे खूब जोता। आखिर जब वह तेली के काम का भी ना रहा, तो उसने उसे एक कसाई को बेच दिया। 

कसाई ने पूरी निर्दयता से उसे जीवित ही काट डाला, और उसका मांस बोटी बोटी करके बेच दिया। बाकी बचा हुआ चमढ़ा नगाढ़ा मढ़ने वाले ले गये। उन्होंने नगाढ़े पर मढ़कर उसे तब तक पीटा। जब तक वह फ़ट ना गया। 

इसी पर कबीर साहब ने कहा था। 

बैल बने हल में जुते, ले गाङी में दीन। 
तेली के कोल्हू रहे, पुनि घेर कसाई लीन। 
मांस कटा बोटी बिकी, चमढ़न मढ़ी नक्कार। 
कछुक करम बाकी रहे, तिस पर पङती मार।  

इसी प्रसंग पर एक बात याद आ गयी, जो सतसंग के दौरान किसी ने कही थी। 
- बाबा, मैं..की पक्की तो बकरी होती है, जो मरते दम तक मैं नहीं छोङती।

मैंने कहा - हरेक को आखिर में ‘मैं’ छोङनी ही पङती है। 

बोला - बाबा कैसे? 

बकरी जो मैं मैं करती है, आखिर तक मैं ना जाती है। 
गर्दन पर छुरी चलती है, पर मैं ही मैं चिल्लाती है।

लेकिन? 

उसी बकरी आंत की, जब तांत बना ली जाती है। 
धुनिया जब उसको धुनता है, तो तूही तूही गाती है।

तांत क्या होती है?

पहले के समय में रजाई आदि में भरने के लिये जो रुई धुनी जाती थी। उसमें एक कमान में इसी तांत को रस्सी की जगह बांधकर धनुष की तरह बनाकर छ्त से लटका देते थे। फ़िर जब रुई के ढेर में उस यंत्र को हाथ से चलाते थे तो उससे तूही तूही आवाज निकलती थी। मैंने इसको खूब देखा है। चालीस वर्ष या इससे ऊपर की आयु के लोगों ने भी खूब देखा होगा।

गुरू नाम जपे हर धङकन




गुरू पारब्रह्म परमेश्वर, निखलेश्वरमय जग सारा।
गुरू नाम जपे हर धङकन, बोले मन का इकतारा।
ओम गुरू, ओम गुरू, ओम गुरू।

गुरू दोष मेरे सब लेलो, मेरे अंतर के पट खोलो।
बस जाओ मेरे ह्रदय में, मुझे अपनी शरण में लेलो।
मेरा मन माया में भटके, तुम दे दो जरा सहारा।
गुरू नाम जपे हर धङकन, बोले मन का इकतारा।
ओम गुरू, ओम गुरू, ओम गुरू।

मैं भटक न जाऊं पथ से, मेरी बांहे थामे रखना।
तुम समरथ हो मेरे गुरूवर, केवल ये ध्यान में रखना।
मेरा कुछ भी नहीं है जग में, जो है गुरूदेव तुम्हारा। 
गुरू नाम जपे हर धङकन, बोले मन का इकतारा।
ओम गुरू, ओम गुरू, ओम गुरू।

जब से गुरू शरण मिली है, देखा गुरू रूप तुम्हारा। 
भाता ही नहीं है मुझको, दुनिया का कोई नजारा।
नहीं बोल फ़ूटते मुख से, बहती है केवल धारा। 
गुरू नाम जपे हर धङकन, बोले मन का इकतारा।
ओम गुरू, ओम गुरू, ओम गुरू।

भूत रमे सो भूत है



पण्डित और मशालची, दोनों सूझे नाहिं। 
औरन करें चाँदना, आप अँधेरे माँहि।

करनी तज कथनी कथें, अज्ञानी दिन रात । 
कूकर ज्यों भूँकत फ़िरे, सुनी सुनाई बात।

कथनी के शूरे घने, कथे अडम्बर ज्ञान। 
बाहर जवाब आवे नहीं, लीद करें मैदान।

चण्डाली के चौक में, सतगुरू बैठे जाये। 
चौंसठ लाख गारत गये, दो रहे सतगुरू पाये।

भङवा भङवा सब कहें, जानत नाहीं खोज। 
गरीब कबीर करम से, बाँटत सर का बोझ।

नाम बिना सूना नगर, पङया सकल में शोर। 
लूट न लूटी  बन्दगी, हो गया हँसा भोर।

अदली आरती अदल अजूनी, नाम बिना सब काया सूनी।
झूठी काया खाल लुहारा, इङा पिंगला सुषमना द्वारा।

कृतघ्नी भूले नर लोई, जा घट निश्चय नाम न होई। 
सो नर कीट पतंग भुजंगा, चौरासी में धर है अंगा।

न जाने ये काल की कर डारे, किस विधि हल जा पासा वे।
जिन्हा दे सिर ते मौत खुङगदी, उन्हानूँ केङा हाँसा वे।

साधु मिले साडी शादी (खुशी) होंदी, बिछङ दा दिल गिरि (दुख) वै।
अखदे नानक सुनो जिहाना, मुश्किल हाल फ़कीरी वे।

बिनु उपदेश अचम्भ है, क्यों जीवत है प्राण। 
बिनु भक्ति कहाँ ठौर है, नर नहीं पाषाण।

एक हरि के नाम बिनु, नारि कुतिया हो। 
गली गली भौंकत फ़िरे, टूक न डारे कोय।

बीबी परदे रही थी, डयौङी लगती बार। 
गात उघारे फ़िरती है, बन कुतिया बाजार।

नकबेसर नक से बनी, पहनत हार हमेल। 
सुन्दरी से सुनही (कुतिया) बनी, सुन साहब के खेल।

राजा जनक से नाम ले, कीन्ही हरि की सेव। 
कह कबीर बैकुण्ठ में, उलट मिले शुकदेव।

सतगुरू के उपदेश का, लाया एक विचार। 
जो सतगुरू मिलते नहीं, जाता नरक द्वार।

नरक द्वार में दूत सब, करते खैंचातान। 
उनते कबहूँ न छूटता, फ़िर फ़िरता चारों खान।

चार खान में भरमता, कबहूँ न लगता पार। 
सो फ़ेरा सब मिट गया, सतगुरू के उपकार।

गुरू बङे गोविन्द से, मन में देख विचार। 
हरि सुमरे सो रह गये, गुरू भजे हुये पार।

गंगा काठे घर करे, पीवे निर्मल नीर। 
मुक्ति नहीं हरि नाम बिन, सतगुरू कहें कबीर।

तीरथ कर कर जग मुआ, उङे पानी नहाय। 
राम नाम ना जपा, काल घसीटे जाय।



पीतल का ही थाल है, पीतल का लोटा। 
जङ मूरत को पूजते, फ़िर आवेगा टोटा।

पीतल चमचा पूजिये, जो थाल परोसे। 
जङ मूरत किस काम की, मत रहो भरोसे।

भूत रमे सो भूत है, देव रमे सो देव। 
राम रमे सो राम है, सुनो सकल सुर मेव।

कबीर इस संसार को, समझाऊँ कै बार। 
पूँछ जो पकङे भेङ की, उतरा चाहे पार।

गुरू बिनु यज्ञ हवन जो करहीं। 
मिथ्या जाय कबहूँ न फ़लहीं।

माई मसानी शेर शीतला, भैरव भूत हनुमन्त। 
परमात्मा उनसे दूर है, जो इनको पूजन्त।

सौ वर्ष तो गुरू की सेवा, एक दिन आन उपासी। 
वो अपराधी आत्मा, परे काल की फ़ाँसी।

गुरू को तजै, भजै जो आना। 
ता पशुवा को, फ़ोकट ज्ञाना।

देवी देव ठाङे भये, हमको ठौर बताओ। 
जो मुझको पूजे नहीं, उनको लूटो खाओ।

काल जो पीसे पीसना, जोरा है पनिहार। 
ये दो असल मजूर हैं, सतगुरू के दरबार।

साथी हमारे चले गये, हम भी चालनहार। 
कोए कागज में बाकी रही, ताते लागी वार।

देह पङी तो क्या हुआ, झूठा सभी पटीट। 
पक्षी उङया आकाश कूँ, चलता कर गया बीट।

बेटा जाया खुशी हुयी, बहुत बजाये थाल। 
आना जाना लग रहा, ज्यों कीङी का नाल।

पतझङ आवत देखकर, वन रोवे मन माँहि। 
ऊँची डाली पात थे, अब पीले हो जाँहि।

पात झङता यूँ कहे, सुन भई तरुवर राय। 
अबके बिछुङे नहीं मिला, कहाँ गिरूँगा जाय।

तरुवर कहता पात से, सुनो पात एक बात। 
यहाँ की यही रीत है, एक आवत एक जात।

पर द्वारा स्त्री का खोले, सत्तर जन्म अँधा हो डोले। 
सुरापान मध माँसाहारी, गबन करें भोगे परनारी।

सत्तर जन्म कटत हैं शीश, साक्षी साहब हैं जगदीश।

परनारी न परसियो, मानो वचन हमार। 
भवन चर्तुदश तासु सिर, त्रिलोकी का भार।

परनारी न परसियो, सुनो शब्द सलतंत। 
धर्मराय के खम्ब से, अर्ध मुखी लटकंत।

गुरू की निन्दा, सुने जो काना। 
ताको निश्चय, नरक निदाना।

अपने मुख जो निन्दा करहीं। 
शूकर श्वान गर्भ में परहीं।

सन्त मिलन को जाईये, दिन में कई कई बार। 
आसोजा का मेह ज्यों, घना करे उपकार।

कबीर दर्शन साधु का, साहिब आवे याद। 
लेखे में वो ही घङी, बाकी के दिन बाद।

कबीर दर्शन साधु का, मुख पर बसे सुहाग। 
दर्श उन्हीं को होत हैं, जिनके पूरन भाग।

इच्छा कर मारे नहीं, बिन इच्छा मर जाये। 
कह कबीर तास का, पाप नहीं लगाये।

गुरू द्रोही की पेड पर, जो पग आवे वीर। 
चौरासी निश्चय पङे, सतगुरू कहें कबीर।

जान बूझ सांची तजे, करें झूठ से नेह। 
जाकी संगत हे प्रभु, सपने में ना देय।

माँस भखे और मद पिये, धन वैश्या सों खायें। 
जुआ खेल चोरी करे, अन्त समूला जाय।

यह अर्ज गुफ़तम पेश तो, दर कून करतार। 
हक्का कबीर करीम तू, बे एव परवर दिगार।

(श्री गुरूग्रन्थ साहिब, पृष्ठ 721 महला 1 राग तिलंग)

शुक्रवार, फ़रवरी 10, 2012

परिचय को अंग 7

कबीर आदू एक है, कहन सुनन कूं दोय।
जल से पारा होत है, पारा से जल होय॥

दिल लागा जु दयाल सों, तब कछु अंतर नांहि।
पारा गलि पानी भया, साहिब साधू मांहि॥

ऐसा अविगति रूप है, चीन्है बिरला कोय।
कहै सुनै देखै नहीं, ताते अचरज मोय॥

सत्तनाम तिरलोक में, सकल रहा भरपूर।
लाजै ज्ञान सरीर का, दिखवै साहिब दूर॥

कबीर सुख दुख सब गया, गय सो पिंड सरीर।
आतम परमातम मिलै, दूधै धोया नीर॥

गुरू हाजिर चहुदिसि खङे, दुनी न जानै भेद।
कवि पंडित कूं गम नही, ताके बपुरे वेद॥

जा कारन हम जाय थे, सनमुख मिलिया आय।
धन मैली पिव ऊजला, लाग सकी नहि पांय॥

भीतर मनुवा मानिया, बाहिर कहूं न जाय।
ज्वाला फ़ेरी जल भया, बूझी जलती लाय॥

तन भीतर मन मानिया, बाहिर कबहू न लाग।
ज्वाला ते फ़िरि जल भया, बुझी जलती आग॥

जिन जेता प्रभु पाइया, ताकूं तेता लाभ।
ओसे प्यास न भागई, जब लग धसै न आभ॥

अकास बेली अमृत फ़ल, पंखि मुवे सब झूर।
सारा जगहि झख मुआ, फ़ल मीठा पै दूर॥

तीखी सुरति कबीर की, फ़ोङ गई ब्रह्मंड।
पीव निराला देखिया, सात दीप नौ खंड॥

ना मैं छाई छापरी, ना मुझ घर नहि गांव।
जो कोई पूछै मुझसों, ना मुझ जाति न ठांव॥




परिचय को अंग 6

मकरतार सों नेहरा, झलकै अधर विदेह।
सुरति सोहंगम मिलि रहि, पल पल जुरै सनेह॥

ऐसा अविगति अलख है, अलख लखा नहि जाय।
जोति सरूपी राम है, सब में रह्यो समाय॥

मिलि गय नीर कबीर सों, अंतर रही न रेख।
तीनों मिलि एकै भया, नीर कबीर अलेख॥

नीर कबीर अलेख मिलि, सहज निरंतर जोय।
सत्त सब्द औ सुरति मिलि, हंस हिरंबर होय॥

कहना था सो कहि दिया, अब कछु कहना नाहिं।
एक रही दूजी गई, बैठा दरिया मांहि॥

आया एकहि देस ते, उतरा एक ही घाट।
बिच में दुविधा हो गई, हो गये बारह बाट॥

तेजपुंज का देहरा, तेजपुंज का देव।
तेजपुंज झिलमिल झरै, तहाँ कबीरा सेव॥

खाला नाला हीम जल, सो फ़िर पानी होय।
जो पानी मोती भया, सो फ़िर नीर न होय॥

देखो करम कबीर का, कछु पूरबला लेख।
जाका महल न मुनि लहै, किय सो दोस्त अलेख॥

मैं था तब हरि नही, अब हरि है मैं नाहिं।
सकल अंधेरा मिटि गया, दीपक देखा मांहि॥

सूरत में मूरत बसै, मूरत में इक तत्व।
ता तत तत्व विचारिया, तत्व तत्व सो तत॥

फ़ेर पङा नहि अंग में, नहि इन्द्रियन के मांहि।
फ़ेर पङा कछु बूझ में, सो निरुवारै नांहि॥

साहेब पारस रूप है, लोह रूप संसार।
पारस सो पारस भया, परखि भया टकसार।

मोती निपजै सुन्न में, बिन सायर बिन नीर।
खोज करंता पाइये, सतगुरू कहै कबीर॥

या मोती कछु और है, वा मोती कछु और।
या मोती है सब्द का, व्यापि रहा सब ठौर॥

दरिया मांही सीप है, मोती निपजै मांहिं।
वस्तु ठिकानै पाइये, नाले खाले नांहि॥

चौदा भुवन भाजि धरै, ताहि कियो बैराट।
कहै कबीर गुरू सब्द सो, मस्तक डारै काट॥

हमकूं स्वामी मति कहो, हम हैं गरीब अधार।
स्वामी कहिये तासु कूं, तीन लोक विस्तार॥

हमकूं बाबा मति कहो, बाबा है बलियार।
बाबा ह्वै करि बैठसी, घनी सहेगा मार॥

यह पद है जो अगम का, रन संग्रामे जूझ।
समुझे कूं दरसन दिया, खोजत मुये अबूझ॥

सीतल कोमल दीनता, संतन के आधीन।
बासों साहिब यौं मिले, ज्यौं जल भीतर मीन॥

परिचय को अंग 5


चाँद नहीं सूरज नहीं, हता नही ओंकार।
तहाँ कबीरा संतजन, को जानै संसार॥

धरति गगन पवनै नही, नहि होते तिथि वार।
तब हरि के हरिजन हुते, कहैं कबीर विचार॥

धरति हती नहि पग धरूं, नीर हता नहि न्हाऊं।
माता ते जनम्या नहीं, क्षीर कहाँ ते खाऊं॥

अगन नहीं जहँ तप करूं, नीर नहि तहँ न्हाऊं।
धरती नहीं जहँ पग धरूं, गगन नहिं तहँ जाऊं॥

पांच तत्व गुन तीन के, आगे मुक्ति मुकाम।
तहाँ कबीरा घर किया, गोरख दत्त न राम॥

सुर नर मुनिजन औलिया, ये सब उरली तीर।
अलह राम की गम नहीं, तहँ घर किया कबीर॥

सुर नर मुनिजन देवता, ब्रह्मा विस्नु महेस।
ऊंचा महल कबीर का, पार न पावै सेस॥

जब दिल मिला दयाल सों, तब कछु अंतर नांहि।
पाला गलि पानी भया, यौं हरिजन हरि मांहि॥

ममता मेरा क्या करै, प्रेम उघारी पोल।
दरसन भया दयाल का, सूल भई सुख सोल॥

सुन्न सरोवर मीन मन, नीर निरंजन देव।
सदा समूह सुख बिलसिया, बिरला जानै भेव॥

सुन्न सरोवर मीन मन, नीर तीर सब देव।
सुधा सिंधु सुख बिलसहीं, बिरला जाने भेव॥

लौन गला पानी मिला, बहुरि न भरिहै गून।
हरिजन हरि सों मिल रहा, काल रहा सिर धुन॥

गुन इन्द्री सहजे गये, सदगुरू करी सहाय।
घट में नाम प्रगट भया, बकि बकि मरै बलाय॥

जब लग पिय परिचय नहीं, कन्या क्वारी जान।
हथ लेवो हूं सालियो, मुस्किल पङि पहिचान॥

सेजै सूती रग रम्हा, मांगा मान गुमान।
हथ लेवो हरि सूं जुर्यो, अखै अमर वरदान॥

पूरे सों परिचय भया, दुख सुख मेला दूर।
निरमल कीन्ही आतमा, ताते सदा हजूर॥

मैं लागा उस एक सों, एक भया सब मांहि।
सब मेरा मैं सबन का, तहाँ दूसरा नांहि॥

भली भई जो भय पङी, गई दिसा सब भूल।
पाला गलि पानी भया, ढूलि मिला उस कूल॥

चितमनि पाई चौहटे, हाङी मारत हाथ।
मीरां मुझ पर मिहर करि, मिला न काहू साथ॥

बरसि अमृत निपज हिरा, घटा पङे टकसार।
तहाँ कबीरा पारखी, अनुभव उतरै पार॥

WELCOME

मेरी फ़ोटो
Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।