उडगन
और सुधाकरा, बसत नीर की संध।
यौं
साधू संसार में, कबीर पङत न फ़ंद॥
जौन
भाव ऊपर रहै, भितर बसावै सोय।
भीतर औ
न बसावई, ऊपर और न होय॥
तन में
सीतल सब्द है, बोलै वचन रसाल।
कहैं
कबीर ता साधु को, गंजि सकै नहि काल॥
तीन
लोक उनमान में, चौथा अगम अगाध।
पंचम
दसा है अलख की, जानैगा कोई साध॥
सब वन
तो चंदन नहीं, सूरा के दल नांहि।
सब
समुद्र मोती नहि, यौं साधू जग मांहि॥
सिंघन
के लेहङा नहीं, हँसों की नहि पांत।
लालन
की नहि बोरियां, साधु न चले जमात॥
स्वांगी
सब संसार है, साधू समज अपार।
अलल
पंछि कोइ एक है, पंछी कोटि हजार॥
ऐसा
साधू खोजि के, रहिये चरनों लाग।
मिटै
जनम की कलपना, जाके पूरन भाग॥
ऊंडा
चित अरु सम दसा, साधू गुन गंभीर।
जो
धोखा बिचलै नहीं, सोई संत सुधीर॥
चित
चैन में गरकि रहा, जागि न देख्यौ मित्त।
कहाँ
कहाँ सल पारि हो, गल बल सहर अनित्त॥
कबीर
हमरा कोइ नहि, हम काहू के नांहि।
पारै
पहुँची नाव ज्यौं, मिलि के बिछुरी जांहि॥
आज काल
के लोग हैं, मिलि के बिछुरी जांहि।
लाहा कारन
आपने, सौगंद राम की खांहि॥
कबीर
सब जग हेरिया, मेल्यौ कंध चढ़ाय।
हरि
बिन अपना कोइ नहि, देखा ठोकि बजाय॥
निसरा
पै बिसरा नहीं, तो निसरा ना काहि।
पहिली
खाद उखालिया, सो फ़िर खाना नाहिं॥
जो
विभूति साधुन तजी, मूढ़ ताहि लपटाय।
ज्यौंहि
वमन करि डारिया, स्वान स्वाद करि खाय॥
दुनिया
बंधन पङि गई, साधू हैं निरबंध।
राखै
खंग जु ज्ञान का, काटत फ़िरै जु फ़ंद॥
कबीर
कमलन जल बसै, जल बसि रहे असंग।
साधूजन
तैसे रहें, सुनि सदगुरू परसंग॥
मुर्गाबी
को देखकर, मन उपजा यह ज्ञान।
जल में
गोता मार कर, पंख रहे अलगान॥
जुआ
चोरी मुखबिरी, ब्याज विरानी नारि।
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि॥
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