सोई
साधु पति बरत जु, सदा जरै पिय आग।
लाभ
हानि बिसराय के, रहु गुरू चरनन लाग॥
दया
गरीबी बंदगी, समता सील सुभाव।
येते
लच्छन साधु के, कहै कबीर सदभाव॥
मान
नहि अपमान नहीं, ऐसे सीतल संत।
भवसागर
ऊतर पङे, तोरै जम के दंत॥
आसा
तजि माया तजै, मोह तजै अरु मान।
हरख
सोक निन्दा तजै, कहै कबिर संत जान॥
साधु
सोई सराहिये, कनक कामिनी त्याग।
और कछू
इच्छा नहीं, निसदिन रह अनुराग॥
साधू
ऐसा चाहिये, जैसा फ़ोफ़ल भग।
आप
करावै टूकङा, पर राखै रंग॥
तनहि
ताप जिनको नही, माया मोह संताप।
हरख
सोक आसा नहीं, सो हरिजन हरि आप॥
संतन
के मन भय रहे, भय धरि करै विचार।
निसदिन
नाम जपउ करै, बिसरत नहीं लगार॥
आसन तो
इकान्त करै, कामिनी संगत दूर।
सीतल
संत सिरोमनी, उनका ऐसा नूर॥
साधु
साधु मुख से कहै, पाप भसम ह्वै जाय।
आप
कबीर गुरू कहत हैं, साधू सदा सहाय॥
हौं
साधुन के संग रहूं, अंत न कितहूं जाऊं।
जु
मोहि अरपै प्रीति सों, साधुन मुख ह्वै खाऊं॥
यह
कलियुग आयो अवै, साधु न मानै कोय।
कामी
क्रोधी मसखरा, तिनकी पूजा होय॥
संत
संत सब कोइ कहै, संत समुंदर पार।
अनल
पंख कोइ एक है, पंखी कोटि हजार॥
कबीर
सेवा दोउ भली, एक संत इक राम।
राम है
दाता मुक्ति का, संत जपावै नाम॥
साधू
खारा यौं तजै, सीप समुंदर मांहि।
वासो
तो वामें रहै, मन चित वासों नाहिं॥
साधु
मिले साहिब मिले, ये सुख कहो न जाय।
अंतरगत
अंगीठडी, ततचिन टाढी थाय॥
साहिब
संग राचै भंवर, कबहू न छूटै रंग।
जैसे
जैसे कीजिये, उन संतन को संग॥
साधू
के घर जाय के, किरतन दीजै कान।
ज्यौं
उद्यम त्यौं लाभ है, ज्यौं आलस त्यौं हानि॥
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