साधु मिले सचु पाइया, साकट मिलि ह्वै हानि।
बलिहारी वा दास की, पिवै प्रेमरस छानि॥
केता जिभ्या रस भखै, रती न लागै टक।
ज्ञानी माया मुक्ति ये, यौं साधू निकलंक॥
काग साधू दरसन कियो, कागा ते भये हंस।
कबीर साधू दरस ते, पाये उत्तम बंस॥
हंस
साधु दरसन कियो, हंसा ते भय कौर।
कबीर
साधू दरस ते पाये उत्तम ठौर॥
कौर
साधु दरसन कियो, पायो उत्तम मोष।
कबीर
साधू दरस ते, मिटि गये तीनों दोष॥
कागा
ते हंसा भयो, हंसा ते भयो कौर।
कबीर
साधू दरस ते, भयो और को और॥
हेत
बिना आवै नही, हेत तहाँ चलि जाय।
कबीर
जल औ संतजन, नवै तहाँ ठहराय॥
संत
होत है हेत के, हेत तहाँ चलि जाय।
कहै
कबीर वे हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय॥
दृष्टि
मुष्टि आवै नही, रूप बरन पुनि नांहि।
जो मन
में परतीत ह्वै, देखा संतन मांहि॥
सदा
मीन जल में रहै, कब अचवै है पानि।
ऐसी
महिमा साधु की, पङै न काहू जानि॥
सूर चढ़ै
संग्राम कूं, बांधे तरकस चार।
साधू
जन माने नही, बांधे बहु हंकार॥
संत
सेवा गुरू बंदगी, गुरू सुमिरन वैराग।
येता
तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग॥
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