साधू
के घर जाय के, सुधि न लीजै कोय।
पीछै
करी न देखिये, आगे ह्वै सो होय॥
साधु
विहंगम सुरसरी, चेल विहंगम चाल।
जो जो
गलियां नीकसे, सो सो करै निहाल॥
साधू
सोई सराहिये, पाँचौ राखै चूर।
जिनके
पांचौ बस नही, तिनते साहिब दूर॥
निहकामी
निरमल दसा, पकङे चारौं खूंट।
कहै
कबीर वा दास का, आस करै बैकुंठ॥
रति एक
धुँवा संत का, भूत ऊधरे चार।
जले
जलाये फ़िर जले, कहैं कबीर विचार॥
साधू सरवन
सांभरी, छोङ चले ग्रह काम।
डग डग
पै असमेध जग, यौं कहि श्री भगवान॥
साधु
दरस को जाइये, जेता धरिये पांय।
डग डग
पै असमेध जग, कहैं कबीर समुझाय॥
साधू
दरसन महाफ़ल, कोटि जज्ञ फ़ल लेह।
इक
मंदिर की का पङी, सहर पवित्र करि लेह॥
साधु
मिले सूख ऊपजे, साधु गये दुख होय।
ताते
देही दूबली, नैनन दीन्हा रोय॥
जाकी
धोति अधर तपै, ऐसे मिले असंख।
सब
रिषियन के देखतां, सुपच बजाया घंट॥
साहिब
का बाना सही, संतन पहिरा जानि।
पांडव
जग पूरन भयो, सुपच बिराजे आन।
कुलवंता
कोटिक मिले, पंडित कोटि पचीस।
सुपचि
भक्त की पनहि में, तुलै न काहू सीस॥
हरि
सेती हरिजन बङे, जानै संत सुजान।
सेतु
बांधि रघुवर चले, कूदि गये हनुमान॥
ज्ञान
ध्यान मन धनुष गहि, खैंचनहार अलेख।
केते
दुरजन मारिया, आप कढ़ै या भेख॥
साधू
ऐसा चाहिये, जहाँ रहै तहाँ गैब।
बानी
के विस्तार में, ताकूं कोटिक ऐब॥
सन्तमता
गजराज का, चाले बंधन छोङ।
जग
कुत्ता पीछै फ़िरै, सुनै न वाका सोर॥
आज काल
दिन पांच में, बरस पंच जुग पंच।
जब तब
साधु तारसी, और सकल परपंच॥
सतगुरू
केरा भावता, दूरहि ते दीसंत।
तन छीन
मन उनमुनी, झूठा रूठ फ़िरंत॥
ज्यौं
जल में मच्छी रहैं, साहिब साधू मांहि।
सब जग
में साधू रहै, असमझ चीन्है नांहि॥
समझे
घट कूं यूं बनै, ये तो बात अगाध।
सबही
सों निरवैरता, पूजन कीजै साध॥
मिलता
सेती मिलि रहै, बिछुरे सें वैराग।
साहिब
सेती यौं रहै, विमन के गल ताग॥
हाजी
कूं दुख बहुत हैं, नाजी कू दुख नांहि।
कबीर
हाजी ह्वै रहो, अपने ही दिल मांहि॥
सन्त
कहि सो साधु कहि, वेद कही मति जानि।
कहैं
कबीर एकै रही, ताते होत पिछान॥
साधू
ऐसा चाहिये, जाका पूरन मन।
विपति
पङै छाङै नही, चढ़ै चौगुना रंग।।
कबीर
साधू दुरमति, ज्यौं पानी में लात।
पल एकै
विरजत रहै, पीछै इक ह्वै जात॥
साधू
ऐसा चाहिये, जामें लछन बतीस।
विरचाया
बिरचै नहीं, पांव चढ़े दे सीस॥
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