कबीर
ह्रदय कठोर के, सब्द न लगै सार।
सुधि
बुधि के हिरदै बिधे, उपजे ज्ञान विचार॥
झिरमिर
झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह।
माटी
गलि पानी भई, पाहन वाही नेह॥
हरिया
जानै रूखङा, उस पानी का नेह।
सूखा
काठ न जानि है, कितहूं बूङा मेह॥
कबीर
हरिरस बरसिया, गिरि परबत सिखराय।
नीर
निबानू ठाहरै, ना वह छापर डाय॥
पसुवा
सों पालौ पर्यो, रहु रहु हिया न खीज।
ऊसर
बीज न ऊगसी, बोवै दूना बीज॥
ऊंचै
कुल के कारनै, बांस बंध्यो हंकार।
राम
भजन हिरदै नही, जार्यो सब परिवार॥
कबीर
चंदन के मिरै, नीम भी चन्दन होय।
बूड्यौ
बांस बढ़ाइयां, यौं जनि बूङौ कोय॥
कबीर
लहरि समुद्र की, मोती बिखरे आय।
बगुला
परख न जानई, हंसा चुगि चुगि खाय॥
सारा
लश्कर ढ़ूंढ़िया, सारदूल नहि पाय।
गीदङ
को सर वाहिके, नामै काम गंवाय॥
सुकदेव
सरीखा फ़ेरिया, तो को पावै पार।
गुरू
बिनु निगुरा जो रहे, पङै चौरासी धार॥
सत्त
नाम है मोतिया, सचराचर रहो छाय।
सगुरे
थे सो चुनि लिये, चूक पङी निगुराय॥
कंचन
मेरु अरपहीं, अरपै कनक भंडार।
कहै
कबीर गुरू बेमुखी, कबहूं न पावै पार॥
दारू
के पावक करै, घुनक जरी न जाय।
कहैं
कबीर गुरू बेमुखी, काल पास रहि जाय॥
साकट
का मुख बिंध है, निकसत वचन भुजंग।
ताकी
औषधि मौन है, विष नही व्यापै अंग॥
साकट
कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय।
जो कौआ
मठ हगि भरै, मठ को कहा नशाय॥
साकट
सूकर कूकरा, तीनों की गति एक।
कोटि
जतन परमोधिये, तऊ न छाङै टेक॥
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