निगुरा
को अंग
जो
निगुरा सुमिरन करै, दिन में सौ सौ बार।
नगर
नायका सत करै, जरै कौन की लार॥
गुरू
बिन अहनिस नाम ले, नही संत का भाव।
कहै
कबीर ता दास का, पङै न पूरा दाव॥
गुरू
बिन माला फ़ेरते, गुरू बिन देते दान।
गुरू
बिन सब निष्फ़ल गया, पूछौ वेद पुरान॥
गरभ
योगेसर गुरू बिना, लागा हरि की सेव।
कहैं
कबीर बैकुंठ में, फ़ेर दिया सुकदेव॥
जनक
विदेही गुरू किया, लागा गुरू की सेव।
कहैं
कबीर बैकुंठ में, उलटि मिला सुकदेव॥
चौसठ
दीवा जोय के, चौदह चंदा मांहि।
तिहि
घर किसका चांदना, जिहि घर सतगुरू नांहि॥
निसि
अंधियारी कारनै, चौरासी लख चंद।
गुरू
बिन येते उदय ह्वै, तहूं सुद्रिष्टिहि मंद॥
दारुक
में पावक बसै, घुनका घर किय जाय।
हरि
संग विमुख नर को, काल ग्रास ही खाय॥
पूरे
को पूरा मिला, पूरा पङसी दाव।
निगुरू
का कृवट चलै, जब तब करै कुदाव॥
जो
कामिनी परदे रहै, सुनै न गुरूमुख बात।
सो तो
होगी कूकरी, फ़िरै उघारै गात॥
कबीर
गुरू की भक्ति बिनु, नारि कूकरी होय।
गली
गली भूंकत फ़िरै, टूंक न डारै कोय॥
कबीर
गुरू की भक्ति बिनु, राजा रासभ होय।
माटी
लदै कुम्हार की, घास न डारै सोय।
गगन
मंडल के बीच में, तहवाँ झलकै नूर।
निगुर
महल न पावई, पहुँचेगा गुरू पूर॥
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