गुरू
नाम है गम्य का, सीष सीख ले सोय।
बिनु
पद बिनु मरजाद नर, गुरू सीष नहि कोय॥
गु
अंधियारी जानिये, रू कहिये परकास।
मिटे
अज्ञान तम ज्ञान ते, गुरू नाम है तास॥
भेरैं
चढ़िया झांझरै, भौसागर के मांहि।
जो
छांङै तो बाचि है, नातर बूङै मांहि॥
जाका
गुरू है गीरही, गिरही चेला होय।
कीच
कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय॥
गुरुवा
तो सस्ता भया, पैसा केर पचास।
राम
नाम धन बेचि के, करै सीष की आस॥
गुरुवा
तो घर घर फ़िरे, दीक्षा हमरी लेह।
कै
बूङौ कै ऊबरौ, टका पर्दनी देहु॥
घर में
घर दिखलाय दे, सो गुरू चतुर सुजान।
पांच
सब्द धुनकार धुन, बाजै सब्द निसान॥
छिपा
रँगे सुरंग रँग, नीरस रस करि लेय।
ऐसा
गुरू पै जो मिलै, सीष मोक्ष पुनि देय॥
मैं
उपकारी ठेठ का, सदगुरू दिया सुहाग।
दिल
दरपन दिखलाय के, दूर किया सब दाग॥
ऐसा
कोई ना मिला, जासों रहिये लाग।
सब जग
जलता देखिया, अपनी अपनी आग॥
ऐसे तो
सदगुरू मिले, जिनसों रहिये लाग।
सबही
जग सीतल भया, मिटी आपनी आग॥
यह तन
विष की बेलरी, गुरू अमृत की खान।
सीस
दिये जो गुरू मिले, तो भी सस्ता जान॥
गुरू
बतावै साध को, साध कहै गुरू पूज।
अरस
परस के खेल में, भई अगम की सूझ॥
नादी
बिंदी बहु मिले, करत कलेजे छेद।
तख्त
तले का ना मिला, जासों पूछूं भेद॥
तख्त
तले की सो कहै, तख्त तले का होय।
मांझ
महल की को कहै, पङदा गाढ़ा सोय॥
मांझ
महल की गुरू कहै, देखा जिन घर बार।
कुंजी
दीन्ही हाथ कर, पङदा दिया उघार॥
वस्तु
कहीं ढ़ूंढ़ै कहीं, किहि विधि आवै हाथ।
कहैं
कबीर तब पाइये, भेदी लीजै साथ॥
भेदी
लीया साथ करि, दीन्हा वस्तु लखाय।
कोटि
जनम का पंथ था, पल में पहुँचा जाय॥
घट का
परदा खोलि करि, सनमुख ले दीदार।
बाल
सनेही सांइया, आदि अंत का यार॥
गुरू
मिला तब जानिये, मिटे मोह तन ताप।
हरष
सोक व्यापै नही, तब गुरू आपै आप॥
सिष
साखा बहुते किया, सतगुरू किया न मीत।
चाले
थे सतलोक को, बीचहि अटका चीत।
बंधे
को बंधा मिला, छूटै कौन उपाय।
कर
सेवा निरबंध की, पल में लेत छुङाय॥
गुरू
बेचारा क्या करै, हिरदा भया कठोर।
नौ
नेजा पानी चढ़ा, पथर न भीजी कोर॥
गुरू
बेचारा क्या करै, सब्द न लागा अंग।
कहै
कबीर मैली गजी, कैसे लागै रंग॥
गुरू
है पूरा सिष है सूरा, बाग मोरि रन पैठ।
सत
सुकृत को चीन्हि के, एक तख्त चढ़ि बैठ॥
कहता
हूँ कहि जात हूं, देता हूं हेला।
गुरू
की करनी गुरू जानै, चेला की चेला॥
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