सब जग
तो भरमत फ़िरै, ज्यौं जंगल का रोज।
सतगुरू
सों सूधि भई, जब देखा कछु मौज॥
तीन
लोक है देह में, रोम रोम में धाम।
सतगुरू
बिन नहि पाइये, सत्त सार निज नाम॥
सकल
जगत जनै नही, सो गुरू प्रगटे आय।
जिन
आँखों देखा नहीं, सो गुरू दीन्ह लखाय॥
चलते
चलते युग गया, को न बतावै धाम।
पैडे
में सतगुरू मिले, पाव कोस पर गाम॥
खेल
मचा खेलाङि सों, आनन्द जीतै जाय।
सदगुरू
के संग खेलता, जीव ब्रह्म ह्वै जाय॥
सीप जु
तब लग उतरती, जब लग खाली पेट।
उलटि
सीप पैडे गई, भई स्वाति सों भेंट॥
सीप
समुंदर में बसै, रटत पियास पियास।
सकल
समुंद तिनखा गिनै, स्वांति बूंद की आस॥
कबीर
समझा कहत है, पानी थाह बताय।
तांकूं
सदगुरू कह करै, औघट डूबै जाय॥
डूबा
औघट ना तरै, मोहि अंदेसा होय।
लोभ
नदी की धार में, कहा पङौ नर सोय॥
सचु
पाया सुख ऊपजा, दिल दरिया भरपूर।
सकल
पाप सहजे गया, सदगुरू मिले हजूर॥
बिन
सदगुरू उपदेस, सुर नर मुनि नहि निस्तरे।
ब्रह्मा
विष्नु महेस, और सकल जीव को गिनै॥
केते
पढ़ि गुनि पचि मुआ, योग यज्ञ तप लाय।
बिन
सदगुरू पावै नही, कोटिन करै उपाय॥
करहु
छोङ कुल लाज, जो सदगुरू उपदेस है।
होय तब
जिव काज, निश्चय करि परतीत करु॥
अक्षर
आदि जगत में, जाका सब विस्तार।
सदगुरू
दाया पाईये, सत्तनाम निज सार॥
सदगुरू
खोजो संत, जीव काज जो चाहहु।
मेटो
भव को अंक, आवागवन निवारहु॥
सत्तनाम
निज सोय, जो सदगुरू दाया करै।
और झूठ
सब होय, काहे को भरमत फ़िरै॥
जो
सत्तनाम समाय, सतगुरू की परतीति कर।
जम के
मल मिटाय, हँस जाय सतलोक कहँ॥
ततदरसी
जो होय, सो ततसार विचारई।
पावै
तत्त बिलोय, सदगुरू के चेला सई॥
जग
भौसागर माहिं, कहु कैसे बूङत तरै।
गहु
सदगुरू की बांहि, जो जल थल रक्षा करै॥
निजमत
सदगुरू पास, जाहि पाय सब सुधि मिले।
जग ते
रहै उदास, ताकहँ क्यौं नहि खोजिये॥
यह
सदगुरू उपदेस है, जो मानै परतीत।
करम
भरम सब त्यागि के, चलै सो भवजल जीत॥
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