॥ग्रंथ बावनी॥
बावन आखिर लोकत्री, सब कुछ इनहीं माँहि ।
ये सब खिरि जाहिगे, सो आखिर इनमें नाँहि ?
षिरि = खिर
ते तौ आधि अनंद सरूपा, गुन पल्लव बिस्तार अनूपा
। आधि = आदि
साखा तत थैं कुसम गियाना, फल सो आछा राम का नामा ।
सदा अचेत चेत जिव पंखी ? हरि तरवर करि बास ?
झूठ जगि जिनि भूलसी जिय रे, कहन सुनन की आस ।
जिहि ठगि ठगि सकल जग खावा, सो ठग ठग्यो ठौर मन आवा ?
डडा डर उपजै डर जाई, डर ही मैं डर रह्यौ समाई
। (ड)
जो डर डरै तो फिर डर लागै, निडर होई तो डरि डर भागै
?
ढढा ढिग कत ढूँढै आना, ढूँढत ढूँढत गये पराना ।
(ढ)
चढ़ि सुमर ढूँढि जग आवा, जिमि गढ़ गढ़ा सु गढ़ में
पावा ।
णणारि णरूँ तौ नर नाहीं, करै ना फुनि नवै न संचरै
। (ण)
धनि जनम ताहीं कौ गिणा, मेरे एक तजि जाहि घणा ।
तता अतिर तिस्यौ नहीं गाई, तन त्रिभुवन में रह्यौ
समाई । (त)
जे त्रिभुवन तन मोहि समावै, तो ततै तन मिल्या सचु
पावै ।
अथा अथाह थाह नहीं आवा, वो अथाह यहु थिर न रहावा
?
थोरै थलि थानै आरंभै, तो बिनहीं थंभै मंदिर
थंभै । (थ)
ददा देखि जुरे बिनसन हार, जस न देखि तस राखि बिचार
। (द)
दसवै द्वारि जब कुंजी दीजै ? तब दयालु को दरसन कीजै ।
धधा अरधै उरध न बेरा, अरधे उरधै मंझि बसेरा ?
(ध)
अरधै त्यागि उरध जब आवा ? तब उरधै छाँड़ि अरध कत
धावा ?
नना निस दिन निरखत जाई, निरखत नैन रहे रतबाई । (न)
निरखत निरखत जब जाइ पावा, तब लै निरखै निरख मिलावा
।
पपा अपार पार नहीं पावा, परम जोति सौ परो आवा । (प)
पांचौ इंद्री निग्रह करै ? तब पाप पुनि दोऊ न संचरै
?
फफा बिन फूला फलै होई, ता फल फंफ लहै जो कोई । (फ़)
दूंणी न पड़ै फूकैं बिचारैं, ताकी फूंक सबै तन फारै ।
बबा बंदहिं बंदै मिलावा, बंदहि बंद न बिछुरन पावा
। (ब)
जे बंदा बंदि गहि रहै, तो बंदगि होइ सबै बंद
लहै ।
भभा भेदै भेद नहीं पावा, अरभैं भांनि ऐसो आवा ?
अरभैं = शुरुआत (भ)
जो बाहरि सो भीतरि जाना ? भयौ भेद भूपति पहिचाना ?
ममाँ मन सो काज है, मन माना सिधि होइ । (म)
मन हीं मन सौ कहै कबीर, मन सौं मिल्याँ न कोइ ।
ममाँ मूल गह्याँ मन माना, मरमी होइ सूँ मरम ही
जाना । (म)
मति कोई मन सौं मिलता बिलमावै, मगन भया तैं सो गति पावै
।
जहाँ बोल तहाँ आखिर आवा, जहाँ अबोल तहाँ मन न
लगावा ?
बोल अबोल मंझि है सोई ? जे कुछि है ताहि लखै न
कोई ? मंझि = बीच में
ओ अंकार आदि में जाना, लिखि करि मेटै ताहि न
माना । (अ)
ओ ऊकार करै जस कोई, तस लिखि मरेणां न होई । (उ)
कका कवल किरणि में पावा, अरि ससि बिगास सपेट नहीं
आवा । (क)
अस जे जहाँ कुसुम रस पावा, तौ अकह कहा कहि का
समझावा ।
खखा इहै खोरि मनि आवा, तौ खोरहि छाँड़ चहूँ दिस
धावा । (ख)
खसमहिं जानि षिमा करि रहै, तौ हो दून षेव अखै पद
लहै ।
गगा गूर के बचन पिछाना ? दूसर बात न धरिये काना ?
(ग)
सोइ बिहंगम कबहुँ न जाई, अगम गहै गहि गगन रहाई ?
घघा घटि निमसै सोई, घट फाटा घट कबहुँ न होई
। (घ)
तौ घट माँहि घाट जो पावा, सु घटि छाड़ि औ घट कत आवा
?
नना निरखि सनेह करि, निरवालै संदेह । (न)
नाहीं देखि न भाजिये, प्रेम सयानप येह ।
चचा चरित चित्र है भारी, तजि बिचित्र चेतहुँ चित
कारी । (च)
चित्र विचित्र रहै औडेरा, तजि बिचित्र चित राखि
चितेरा ।
छछा इहै छत्रापति पासा, तिहि छाक न रहै छाड़ि करि
आसा । (छ)
रे मन हूं छिन छिन समझाया, तहाँ छाड़ि कत आप बधाया ।
जजा जे जानै तौ दुरमति हारी, करि बासि काया गाँव । (ज)
रिण रोक्या भाजै नहीं, तौ सूरण थारो नाँव ।
झझा उरझि सुरझि नहीं जाना, रहि मुखि झझखि झझखि
परवाना । (झ)
कत झषि झिषि औरनि समझावा, झगरौ कीये झगरिबौ पावा ।
नना निकटि जु घटि रहै, दूरि कहाँ तजि आइ । (न)
जा कारणि जग ढूँढियो, नैड़े पायौ ताहि ।
टटा निकट घाट है माहीं, खोलि कपाट महील जब जाहीं
। (ट)
रहै लपटि जहि घटि परो आई, देखि अटल टलि कतहुँ न
जाई ।
ठठा ठौर दूरि ठग नीरा, नीठि नीठि मन कीया धीरा
। (ठ)
सूक बिरख यहु जगत उपाया, समझि न परै बिषम तेरी
माया ।
साखा तीनि पत्रा जुग चारी, फल दोइ पापै पुनि
अधिकारी ।
स्वाद अनेक कथ्या नहीं जाही, किया चरित सो इन में
नाहीं ।
तेतौ आहि निनार निरंजना, आदि अनादि न आन ।
कहन सुन कौ कीन्हु जग, आपै आप भुलान ।
जिनि नटवे नटसारी साजी, जो खेलै सो दीसे बाजी ।
मो बपरा थें जोगपति ढीठो, सिव बिरंचि नारद नहीं
दीठी ।
आदि अंति जो लीन भये हैं, सहजै जानि संतोखि रहे
हैं ।
जजा सुतन जीवत ही जरावै, जोबन जारि जुगुति सो
पावै । (ज)
अस जरि बुजरि जरि बरिहै, तब जाइ जोति उजारा लहै ।
ररा सरस निरस करि जानैं, निरस होइ सु रस करि मानै
। (र)
यहु रस बिसरै सो रस होई, सो रस रसिक लहै जे कोई ।
लला लहौ तो भेद है, कहूँ तो कौ उपगार । (ल)
बटक बीज मैं रमि रह्या, ताका तीन लोक बिस्तार ।
ववा वोइहिं जाणिये, इहि जाँण्याँ वो होइ । (व)
वो अस यहु जबहीं मिल्या, इहि तब मिलत न जाषे कोइ
।
ससा सो नीको करि सोधै, घट परया की बात निरोधै ।
(स)
घट पर्यो जे उपजै भाव, मिले ताहि त्रिभुवन पति
राव ।
षषा खोजि परे जे कोई, जे खोजै सो बहुरे न होई
। (ष)
खोजि बूझि जे करै बिचार, तौ भौजल तिरत न लागे बार
।
शशा शोई शेज नू बारे, शोई शाव संदेह निवारे । (श)
अति सुख बिसरे परम सुख पावै, सो अस्त्री सो कंत कहावै
।
हहा होइ होत नहीं जानै, जब जब होइ तबै मन मानै ।
(ह)
ससा उनमन से मन लावै, अनंत न जाइ परम सुख पावै
।
अरु जे तहाँ प्रेम ल्यौ लावै, तो डालह लहैं लैहि चरन
समावै ।
खखा खिरत खपत नहीं चेते, खपत खपत गये जुग केते । (ख)
अब जुग जानि जोरि मन रहै, तौ जहाँ थै बिछरो सो थिर
रहै ।
बावन आखिर जोरै आनि, एकौ आखिर सक्या न जानि ?
सति का शब्द कबीरा कहै, पूछौ जाइ कहा मन रहै ।
पंडित लोगन कौ बौहार, ग्यानवंत कौं तन बिचारि
।
जाकै हिरदै जैसी होई, कहै कबीर लहैगा सोई ।
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