गुरुवार, नवंबर 17, 2011

ग्रंथ बावनी



                        ॥ग्रंथ बावनी॥

बावन आखिर लोकत्री, सब कुछ इनहीं माँहि ।
ये सब खिरि जाहिगे, सो आखिर इनमें नाँहि ? षिरि = खिर

ते तौ आधि अनंद सरूपा, गुन पल्लव बिस्तार अनूपा । आधि = आदि
साखा तत थैं कुसम गियाना, फल सो आछा राम का नामा ।
सदा अचेत चेत जिव पंखी ? हरि तरवर करि बास ? 
झूठ जगि जिनि भूलसी जिय रे, कहन सुनन की आस ।
जिहि ठगि ठगि सकल जग खावा, सो ठग ठग्यो ठौर मन आवा ?
डडा डर उपजै डर जाई, डर ही मैं डर रह्यौ समाई । ()
जो डर डरै तो फिर डर लागै, निडर होई तो डरि डर भागै ?
ढढा ढिग कत ढूँढै आना, ढूँढत ढूँढत गये पराना । ()
चढ़ि सुमर ढूँढि जग आवा, जिमि गढ़ गढ़ा सु गढ़ में पावा ।
णणारि णरूँ तौ नर नाहीं, करै ना फुनि नवै न संचरै । ()
धनि जनम ताहीं कौ गिणा, मेरे एक तजि जाहि घणा ।
तता अतिर तिस्यौ नहीं गाई, तन त्रिभुवन में रह्यौ समाई । ()
जे त्रिभुवन तन मोहि समावै, तो ततै तन मिल्या सचु पावै ।
अथा अथाह थाह नहीं आवा, वो अथाह यहु थिर न रहावा ?
थोरै थलि थानै आरंभै, तो बिनहीं थंभै मंदिर थंभै । ()
ददा देखि जुरे बिनसन हार, जस न देखि तस राखि बिचार । ()
दसवै द्वारि जब कुंजी दीजै ? तब दयालु को दरसन कीजै ।
धधा अरधै उरध न बेरा, अरधे उरधै मंझि बसेरा ? ()
अरधै त्यागि उरध जब आवा ? तब उरधै छाँड़ि अरध कत धावा ?
नना निस दिन निरखत जाई, निरखत नैन रहे रतबाई । ()
निरखत निरखत जब जाइ पावा, तब लै निरखै निरख मिलावा ।
पपा अपार पार नहीं पावा, परम जोति सौ परो आवा । ()
पांचौ इंद्री निग्रह करै ? तब पाप पुनि दोऊ न संचरै ?
फफा बिन फूला फलै होई, ता फल फंफ लहै जो कोई । ()
दूंणी न पड़ै फूकैं बिचारैं, ताकी फूंक सबै तन फारै ।
बबा बंदहिं बंदै मिलावा, बंदहि बंद न बिछुरन पावा । ()
जे बंदा बंदि गहि रहै, तो बंदगि होइ सबै बंद लहै ।
भभा भेदै भेद नहीं पावा, अरभैं भांनि ऐसो आवा ? अरभैं = शुरुआत ()
जो बाहरि सो भीतरि जाना ? भयौ भेद भूपति पहिचाना ?

ममाँ मन सो काज है, मन माना सिधि होइ । ()
मन हीं मन सौ कहै कबीर, मन सौं मिल्याँ न कोइ ।

ममाँ मूल गह्याँ मन माना, मरमी होइ सूँ मरम ही जाना । ()
मति कोई मन सौं मिलता बिलमावै, मगन भया तैं सो गति पावै ।
जहाँ बोल तहाँ आखिर आवा, जहाँ अबोल तहाँ मन न लगावा ?
बोल अबोल मंझि है सोई ? जे कुछि है ताहि लखै न कोई ? मंझि = बीच में

ओ अंकार आदि में जाना, लिखि करि मेटै ताहि न माना । ()
ओ ऊकार करै जस कोई, तस लिखि मरेणां न होई । ()

कका कवल किरणि में पावा, अरि ससि बिगास सपेट नहीं आवा । ()
अस जे जहाँ कुसुम रस पावा, तौ अकह कहा कहि का समझावा ।
खखा इहै खोरि मनि आवा, तौ खोरहि छाँड़ चहूँ दिस धावा । ()
खसमहिं जानि षिमा करि रहै, तौ हो दून षेव अखै पद लहै ।
गगा गूर के बचन पिछाना ? दूसर बात न धरिये काना ? ()
सोइ बिहंगम कबहुँ न जाई, अगम गहै गहि गगन रहाई ?
घघा घटि निमसै सोई, घट फाटा घट कबहुँ न होई । ()
तौ घट माँहि घाट जो पावा, सु घटि छाड़ि औ घट कत आवा ?

नना निरखि सनेह करि, निरवालै संदेह । ()
नाहीं देखि न भाजिये, प्रेम सयानप येह ।

चचा चरित चित्र है भारी, तजि बिचित्र चेतहुँ चित कारी । ()
चित्र विचित्र रहै औडेरा, तजि बिचित्र चित राखि चितेरा ।
छछा इहै छत्रापति पासा, तिहि छाक न रहै छाड़ि करि आसा । ()
रे मन हूं छिन छिन समझाया, तहाँ छाड़ि कत आप बधाया ।
जजा जे जानै तौ दुरमति हारी, करि बासि काया गाँव । ()
रिण रोक्या भाजै नहीं, तौ सूरण थारो नाँव ।
झझा उरझि सुरझि नहीं जाना, रहि मुखि झझखि झझखि परवाना । ()
कत झषि झिषि औरनि समझावा, झगरौ कीये झगरिबौ पावा ।

नना निकटि जु घटि रहै, दूरि कहाँ तजि आइ । ()
जा कारणि जग ढूँढियो, नैड़े पायौ ताहि ।

टटा निकट घाट है माहीं, खोलि कपाट महील जब जाहीं । ()
रहै लपटि जहि घटि परो आई, देखि अटल टलि कतहुँ न जाई ।
ठठा ठौर दूरि ठग नीरा, नीठि नीठि मन कीया धीरा । ()
सूक बिरख यहु जगत उपाया, समझि न परै बिषम तेरी माया ।
साखा तीनि पत्रा जुग चारी, फल दोइ पापै पुनि अधिकारी ।
स्वाद अनेक कथ्या नहीं जाही, किया चरित सो इन में नाहीं ।

तेतौ आहि निनार निरंजना, आदि अनादि न आन ।
कहन सुन कौ कीन्हु जग, आपै आप भुलान ।

जिनि नटवे नटसारी साजी, जो खेलै सो दीसे बाजी ।
मो बपरा थें जोगपति ढीठो, सिव बिरंचि नारद नहीं दीठी ।
आदि अंति जो लीन भये हैं, सहजै जानि संतोखि रहे हैं ।
जजा सुतन जीवत ही जरावै, जोबन जारि जुगुति सो पावै । ()
अस जरि बुजरि जरि बरिहै, तब जाइ जोति उजारा लहै ।
ररा सरस निरस करि जानैं, निरस होइ सु रस करि मानै । ()
यहु रस बिसरै सो रस होई, सो रस रसिक लहै जे कोई ।

लला लहौ तो भेद है, कहूँ तो कौ उपगार । ()
बटक बीज मैं रमि रह्या, ताका तीन लोक बिस्तार ।

ववा वोइहिं जाणिये, इहि जाँण्याँ वो होइ । ()
वो अस यहु जबहीं मिल्या, इहि तब मिलत न जाषे कोइ ।
ससा सो नीको करि सोधै, घट परया की बात निरोधै । ()
घट पर्यो जे उपजै भाव, मिले ताहि त्रिभुवन पति राव ।
षषा खोजि परे जे कोई, जे खोजै सो बहुरे न होई । ()
खोजि बूझि जे करै बिचार, तौ भौजल तिरत न लागे बार ।
शशा शोई शेज नू बारे, शोई शाव संदेह निवारे । ()
अति सुख बिसरे परम सुख पावै, सो अस्त्री सो कंत कहावै ।
हहा होइ होत नहीं जानै, जब जब होइ तबै मन मानै । ()
ससा उनमन से मन लावै, अनंत न जाइ परम सुख पावै ।
अरु जे तहाँ प्रेम ल्यौ लावै, तो डालह लहैं लैहि चरन समावै ।
खखा खिरत खपत नहीं चेते, खपत खपत गये जुग केते । ()
अब जुग जानि जोरि मन रहै, तौ जहाँ थै बिछरो सो थिर रहै ।
बावन आखिर जोरै आनि, एकौ आखिर सक्या न जानि ?
सति का शब्द कबीरा कहै, पूछौ जाइ कहा मन रहै ।

पंडित लोगन कौ बौहार, ग्यानवंत कौं तन बिचारि ।
जाकै हिरदै जैसी होई, कहै कबीर लहैगा सोई ।

                  _______/\_______

कोई टिप्पणी नहीं:

WELCOME

मेरी फ़ोटो
Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।