गुरुवार, नवंबर 17, 2011

बारहपदी रमैणी

                        ॥बारहपदी रमैणी॥

पहली मन में सुमिरौ सोई, ता सम तुलि अवर नहीं कोई ।
कोई न पूजै बासूँ प्राना, आदि अंति वो किनहूँ न जाना ।
रूप सरूप न आवै बोला, हरू गरू कछू जाइ न तोला ।
भूख न त्रिषा धूप नहीं छांही, सुख दुख रहित रहै सब मांही ।

अविगत अपरंपार ब्रह्म, ग्यान रूप सब ठाम ।
बहु बिचारि करि देखिया, कोई न सारिख राम ।

जो त्रिभुवन पति ओहै ऐसा, ताका रूप कहो धै कैसा ।
सेवग जन सेवा कै तांई, बहुत भाँति करि सेवि गुसाई ।
तैसी सेवा चाहौ लाई, जा सेवा बिन रह्या न जाई ।
सेव करंताँ जो दुख भाई, सो दुख सुख बरि गिनहु सवाई ।
सेव करंताँ सो सुख पावा, तिन्य सुख दुख दोऊ बिसरावा ।

सेवक सेव भुलानियाँ, पंथ कुपंथ न जान ।
सेवे सो सेवा करै, जिहि सेवा भल माँन ।

जिहि जग की तस की तस के ही, आपै आप आथिहै एही ?
कोई न लखई वाका भेऊ, भेऊ होई तो पावै भेऊ ?
बावैं न दांहिनै आगै न पीछू, अरध उरध रूप नहीं कीछू?
माय न बाप आव नहीं जावा, नाँ बहु जण्याँ न को वहि जावा?
वो है तैसा वोही जानै, ओही आहि आहि नहीं आँनै?

नैना बैंन अगोचरीं, श्रवना करनी सार ।
बोलन कै सुख कारनै, कहिये सिरजनहार ।

सिरजनहार नांउ धूँ तेरा, भौसागर तिरिबै कूँ भेरा ।
जे यहु मेरा राम न करता, तौ आपै आप आवंटि जग मरता ।
राम गुसाई मिहर जु कीन्हाँ, भेरा साजि संत कौ दीन्हाँ ।

दुख खंडणाँ मही मंडणा, भगति मुकुति बिश्राम ।
विधि करि भेरा साजिया, धरया राम का नाम ।

जिनि यह भेरा दिढ़ करि गहिया, गये पार तिन्हौ सुख लहिया ।
दु मनाँ ह्नै जिनि चित्त डुलावा, करि छिटके थैं थाह न पावा ।
इक डूबे अरु रहे उबारा, ते जगि जरे न राखणहारा ।
राखन की कछु जुगति न कीन्हीं, राखणहार न पाया चीन्हीं ।
जिनि चिन्हा ते निरमल अंगा, जे अचीन्ह ते भये पतंगा ।

राम नाम ल्यौ लाइ करि, चित चेतन ह्नै जागि ।
कहै कबीर ते ऊबरे, जे रहे राम ल्यौ लागि ।

अरचिंत अविगत है निरधारा, जाष्या जाइ न वार न पारा
लोक बेद थै अछै नियारा, छाड़ि रह्यौ सबही संसारा ।
जस कर गांउ न ठांउ न खेरा, कैसे गुन बरनू मैं तेरा?
नहीं तहाँ रूप रेख गुन बाना, ऐसा साहिब है अकुलाना?
नहीं सो ज्वान न बिरध नहीं बारा, आपै आप आपनपौ तारा ।

कहै कबीर बिचारि करि, जिन को लावै भंग ।
सेवौ तन मन लाइ करि, राम रह्या सरबंग ।

नहीं सो दूरि नहीं सो नियरा, नहीं सो तात नहीं सो सियरा ।  
पुरिष न नारि करै नहीं क्रीरा, छाम न घाम न ब्यापै पीरा ।
नदी न नाव धरनि नहीं धीरा, नहीं सो कांच नहीं सो हीरा ।

कहै कबीर बिचारि करि, तासूँ लावो हेत ।
बरन बिबरजत ह्नै रह्या, नां सो स्याम न सेत । स्यांम सेत = काला सफ़ेद

नां वो बारा ब्याह बराता, पीत पितंबर स्याम न राता ।
तीरथ ब्रत न आवै जाता, मन नहीं मोनि बचन नहीं बाता ।
नाद न बिंद गरंथ नहीं गाथा, पवन न पाणी संग न साथा ।

कहै कबीर बिचार करि, ताकै हाथि न पाहिं ।
सो साहिब किनि सेविये, जाके धूप न छांह ।

ता साहिब कै लागौ साथा, सुख दुख मेटि रह्यौ अनाथा ।
ना दसरथ घरि औतरि आवा, ना लंका का राव सतावा ।
देवै कूख न औतरि आवा, ना जसवै ले गोद खिलावा ।
ना वो खाल कै सँग फिरिया, गोबरधन ले न कर धरिया ।
बावन होय नहीं बलि छलिया, धरनी बेद ले न उधरिया ।
गंडक सालिकराम न कोला, मछ कछ ह्नै जलहिं न डोला ।
बद्री वैस्य ध्यान नहीं लावा, परसराम ह्नै खत्री न सतावा ।
द्वारामती सरीर न छाड़ा, जगन्नाथ ले प्यंड न गाड़ा ।

कहै कबीर बिचार करि, ये ऊले ब्योहार । ऊले = बाह्य
याही थैं जे अगम है, सो बरति रह्या संसारि ।

नां तिस सबद व स्वाद न सोहा, ना तिहि मात पिता नहीं मोहा ।
नां तिहि सास ससुर नहीं सारा, ना तिहि रोज न रोवनहारा ।
नां तिहि सूतिग पातिग जातिग, नां तिहि माइ न देव कथा पिक ।
ना तिहि ब्रिध बधावा बाजै, नां तिहि गीत नाद नहीं साजै ।
ना तिहि जाति पांत्य कुल लीका, नां तिहि छोति पवित्र नहीं सींचा ।

कहै कबीर बिचारि करि, ओ है पद निरबान ।
सति ले मन में राखिये, जहाँ न दूजी आन ।

नां सो आवै ना सो जाई, ताकै बंधु पिता नहीं माई ।
चार बिचार कछु नहीं वाकै, उनमनि लागि रहौ जे ताकै ।
को है आदि कवन का कहिये, कवन रहनि वाका ह्नै रहिये ।

कहै कबीर बिचारि करि, जिनि को खोजै दूरि ।
ध्यान धरौ मन सुध करि, राम रह्या भरपूरि ।

नाद बिंद रंक इक खेला, आपै गुरु आप ही चेला ।
आपै मंत्रा आपै मंत्रोला, आपै पूजै आप पूजेला ।
आपै गावै आप बजावै, अपना कीया आप ही पावै ।
आपै धूप दीप आरती, आपनी आप लगावै जाती ।

कहै कबीर बिचारि करि, झूठा लोही चांम ।

जो या देही रहित है, सो है रमिता राम ।

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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।