॥बारहपदी रमैणी॥
पहली मन में सुमिरौ सोई, ता सम तुलि अवर नहीं कोई
।
कोई न पूजै बासूँ प्राना, आदि अंति वो किनहूँ न
जाना ।
रूप सरूप न आवै बोला, हरू गरू कछू जाइ न तोला
।
भूख न त्रिषा धूप नहीं छांही, सुख दुख रहित रहै सब
मांही ।
अविगत अपरंपार ब्रह्म, ग्यान रूप सब ठाम ।
बहु बिचारि करि देखिया, कोई न सारिख राम ।
जो त्रिभुवन पति ओहै ऐसा, ताका रूप कहो धै कैसा ।
सेवग जन सेवा कै तांई, बहुत भाँति करि सेवि
गुसाई ।
तैसी सेवा चाहौ लाई, जा सेवा बिन रह्या न जाई
।
सेव करंताँ जो दुख भाई, सो दुख सुख बरि गिनहु
सवाई ।
सेव करंताँ सो सुख पावा, तिन्य सुख दुख दोऊ
बिसरावा ।
सेवक सेव भुलानियाँ, पंथ कुपंथ न जान ।
सेवे सो सेवा करै, जिहि सेवा भल माँन ।
जिहि जग की तस की तस के ही, आपै आप आथिहै एही ?
कोई न लखई वाका भेऊ, भेऊ होई तो पावै भेऊ ?
बावैं न दांहिनै आगै न पीछू, अरध उरध रूप नहीं कीछू?
माय न बाप आव नहीं जावा, नाँ बहु जण्याँ न को वहि
जावा?
वो है तैसा वोही जानै, ओही आहि आहि नहीं आँनै?
नैना बैंन अगोचरीं, श्रवना करनी सार ।
बोलन कै सुख कारनै, कहिये सिरजनहार ।
सिरजनहार नांउ धूँ तेरा, भौसागर तिरिबै कूँ भेरा
।
जे यहु मेरा राम न करता, तौ आपै आप आवंटि जग मरता
।
राम गुसाई मिहर जु कीन्हाँ, भेरा साजि संत कौ
दीन्हाँ ।
दुख खंडणाँ मही मंडणा, भगति मुकुति बिश्राम ।
विधि करि भेरा साजिया, धरया राम का नाम ।
जिनि यह भेरा दिढ़ करि गहिया, गये पार तिन्हौ सुख
लहिया ।
दु मनाँ ह्नै जिनि चित्त डुलावा, करि छिटके थैं थाह न
पावा ।
इक डूबे अरु रहे उबारा, ते जगि जरे न राखणहारा ।
राखन की कछु जुगति न कीन्हीं, राखणहार न पाया चीन्हीं
।
जिनि चिन्हा ते निरमल अंगा, जे अचीन्ह ते भये पतंगा
।
राम नाम ल्यौ लाइ करि, चित चेतन ह्नै जागि ।
कहै कबीर ते ऊबरे, जे रहे राम ल्यौ लागि ।
अरचिंत अविगत है निरधारा, जाष्या जाइ न वार न पारा?
लोक बेद थै अछै नियारा, छाड़ि रह्यौ सबही संसारा
।
जस कर गांउ न ठांउ न खेरा, कैसे गुन बरनू मैं तेरा?
नहीं तहाँ रूप रेख गुन बाना, ऐसा साहिब है अकुलाना?
नहीं सो ज्वान न बिरध नहीं बारा, आपै आप आपनपौ तारा ।
कहै कबीर बिचारि करि, जिन को लावै भंग ।
सेवौ तन मन लाइ करि, राम रह्या सरबंग ।
नहीं सो दूरि नहीं सो नियरा, नहीं सो तात नहीं सो
सियरा ।
पुरिष न नारि करै नहीं क्रीरा, छाम न घाम न ब्यापै पीरा
।
नदी न नाव धरनि नहीं धीरा, नहीं सो कांच नहीं सो
हीरा ।
कहै कबीर बिचारि करि, तासूँ लावो हेत ।
बरन बिबरजत ह्नै रह्या, नां सो स्याम न सेत ।
स्यांम सेत = काला सफ़ेद
नां वो बारा ब्याह बराता, पीत पितंबर स्याम न राता
।
तीरथ ब्रत न आवै जाता, मन नहीं मोनि बचन नहीं
बाता ।
नाद न बिंद गरंथ नहीं गाथा, पवन न पाणी संग न साथा ।
कहै कबीर बिचार करि, ताकै हाथि न पाहिं ।
सो साहिब किनि सेविये, जाके धूप न छांह ।
ता साहिब कै लागौ साथा, सुख दुख मेटि रह्यौ
अनाथा ।
ना दसरथ घरि औतरि आवा, ना लंका का राव सतावा ।
देवै कूख न औतरि आवा, ना जसवै ले गोद खिलावा ।
ना वो खाल कै सँग फिरिया, गोबरधन ले न कर धरिया ।
बावन होय नहीं बलि छलिया, धरनी बेद ले न उधरिया ।
गंडक सालिकराम न कोला, मछ कछ ह्नै जलहिं न डोला
।
बद्री वैस्य ध्यान नहीं लावा, परसराम ह्नै खत्री न
सतावा ।
द्वारामती सरीर न छाड़ा, जगन्नाथ ले प्यंड न गाड़ा
।
कहै कबीर बिचार करि, ये ऊले ब्योहार । ऊले =
बाह्य
याही थैं जे अगम है, सो बरति रह्या संसारि ।
नां तिस सबद व स्वाद न सोहा, ना तिहि मात पिता नहीं
मोहा ।
नां तिहि सास ससुर नहीं सारा, ना तिहि रोज न रोवनहारा
।
नां तिहि सूतिग पातिग जातिग, नां तिहि माइ न देव कथा
पिक ।
ना तिहि ब्रिध बधावा बाजै, नां तिहि गीत नाद नहीं
साजै ।
ना तिहि जाति पांत्य कुल लीका, नां तिहि छोति पवित्र
नहीं सींचा ।
कहै कबीर बिचारि करि, ओ है पद निरबान ।
सति ले मन में राखिये, जहाँ न दूजी आन ।
नां सो आवै ना सो जाई, ताकै बंधु पिता नहीं माई
।
चार बिचार कछु नहीं वाकै, उनमनि लागि रहौ जे ताकै
।
को है आदि कवन का कहिये, कवन रहनि वाका ह्नै
रहिये ।
कहै कबीर बिचारि करि, जिनि को खोजै दूरि ।
ध्यान धरौ मन सुध करि, राम रह्या भरपूरि ।
नाद बिंद रंक इक खेला, आपै गुरु आप ही चेला ।
आपै मंत्रा आपै मंत्रोला, आपै पूजै आप पूजेला ।
आपै गावै आप बजावै, अपना कीया आप ही पावै ।
आपै धूप दीप आरती, आपनी आप लगावै जाती ।
कहै कबीर बिचारि करि, झूठा लोही चांम ।
जो या देही रहित है, सो है रमिता राम ।
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