गुरू
को कीजै दंडवत, कोटि कोटि परनाम।
कीट न
जानै भृंग को, गुरू करिले आप समान॥
दंडवत
गोविंद गुरू, बन्दौं ‘अब जन’ सोय।
पहिले
भये प्रनाम तिन, नमो जु आगे होय॥
गुरू
गोविंद कर जानिये, रहिये शब्द समाय।
मिलै
तो दंडवत बंदगी, नहिं पल पल ध्यान लगाय॥
गुरू
गोविंद दोऊ खङे, किसके लागौं पाँय।
बलिहारी
गुरू आपने, गोविंद दियो बताय॥
गुरू
गोविंद दोउ एक हैं, दूजा सब आकार।
आपा
मेटै हरि भजै, तब पावै दीदार॥
गुरू
हैं बङे गोविंद ते, मन में देखु विचार।
हरि
सिरजे ते वार हैं, गुरू सिरजे ते पार॥
गुरू
तो गुरूआ मिला, ज्यौं आटे में लौन।
जाति
पाँति कुल मिट गया, नाम धरेगा कौन॥
गुरू
सों ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजिये दान।
बहुतक
भौंदू बहि गये, राखि जीव अभिमान॥
गुरू
की आज्ञा आवई, गुरू की आज्ञा जाय।
कहै
कबीर सो संत है, आवागवन नसाय॥
गुरू
पारस गुरू पुरुष है, चंदन वास सुवास।
सतगुरू
पारस जीव को, दीन्हा मुक्ति निवास॥
गुरू
पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त।
वह
लोहा कंचन करै, ये करि लेय महन्त॥
कुमति
कीच चेला भरा, गुरू ज्ञान जल होय।
जनम
जनम का मोरचा, पल में डारे धोय॥
गुरू
धोबी सिष कापङा, साबू(न) सिरजनहार।
सुरति
सिला पर धोइये, निकसै जोति अपार॥
गुरू
कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट।
अन्तर
हाथ सहार दै, बाहिर वाहै चोट॥
गुरू
समान दाता नहीं, याचक सीष समान।
तीन
लोक की संपदा, सो गुरू दीन्ही दान॥
पहिले
दाता सिष भया, तन मन अरपा सीस।
पाछै
दाता गुरू भये, नाम दिया बखसीस॥
गुरू
जो बसै बनारसी, सीष समुंदर तीर।
एक पलक
बिसरे नहीं, जो गुन होय सरीर॥
लच्छ
कोस जो गुरू बसै, दीजै सुरति पठाय।
शब्द
तुरी असवार ह्वै, छिन आवै छिन जाय॥
गुरू
को सिर पर राखिये, चलिये आज्ञा मांहि।
कहे
कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहिं॥
गुरू
को मानुष जो गिनै, चरनामृत को पान।
ते नर
नरके जायेंगे, जनम जनम ह्वै स्वान॥
गुरू
को मानुष जानते, ते नर कहिये अंध।
होय
दुखी संसार में, आगे जम का फ़ंद॥
गुरू
बिन ज्ञान न ऊपजै, गुरू बिन मिलै न भेव।
गुरू
बिन संशय ना मिटै, जय जय जय गुरूदेव॥
गुरू
बिन ज्ञान न ऊपजै, गुरू बिन मिलै न मोष।
गुरू
बिन लखै न सत्य को, गुरू बिन मिटै न दोष॥
गुरू
नारायन रूप है, गुरू ज्ञान को घाट।
सतगुरू
वचन प्रताप सों, मन के मिटे उचाट॥
गुरू
महिमा गावत सदा, मन अति राखे मोद।
सो भव
फ़िरि आवै नहीं, बैठे प्रभु की गोद॥
गुरू
सेवा जन बंदगी, हरि सुमिरन वैराग।
ये
चारों तबही मिले, पूरन होवै भाग॥
गुरू
मुक्तावै जीव को, चौरासी बंद छोर।
मुक्त
प्रवाना देहि गुरू, जम सों तिनुका तोर॥
गुरू
सों प्रीति निबाहिये, जिहि तत निबहै संत।
प्रेम
बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरू कंत॥
गुरू
मारै गुरू झटकरै, गुरू बोरे गुरू तार।
गुरू
सों प्रीति निबाहिये, गुरू हैं भव कङिहार॥
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