प्रेमी
ढ़ूंढ़त मैं फ़िरूं, प्रेमी मिले न कोय।
प्रेमी
सों प्रेमी मिले, विष से अमृत होय॥
जिन
ढ़ूंढ़ा तिन पाइया, गहिरै पानी पैठ।
मैं
बपुरा बूढ़न डरा, रहा किनारे बैठ॥
सदगुरू
हमसों रीझि के, एक दिया उपदेस।
भौसागर
में बूङता, कर गहि काढ़े केस॥
आदि
अंत अब को नहीं, निज बाने का दास।
सब
संतन मिलि यौं रमै, ज्यौं पुहुपन में बास॥
पुहुपन
केरी बास ज्यौं, व्यापि रहा सब ठांहि।
बाहर
कबहू न पाइये, पावै संतों मांहि॥
बिरछा
पूछै बीज सों, कौन तुम्हारी जात।
बीज
कहै ता वृच्छ, कैसे भै फ़ल पात॥
बिरछा
पूछे बीज को, बीज वृच्छ के मांहि।
जीव जो
ढ़ूंढ़े ब्रह्म को, ब्रह्म जीव के मांहि॥
डाल जो
ढ़ूंढ़े मूल को, मूल डाल के पांहि।
आप
आपको सब चले, मिले मूल सों नांहि॥
डाल भई
है मूल ते, मूल डाल के मांहि।
सबहि
पङे जब भ्रम में, मूल डाल कछु नांहि॥
मूल
कबीरा गहि चढ़ै, फ़ल खाये भरि पेट।
चौरासी
की भय नहीं, ज्यौं चाहे त्यौं लेट॥
आदि
हती सब आपमें, सकल हती ता मांहि।
ज्यौं
तरुवर के बीज में, डार पात फ़ल छांहि॥
हेरत
हेरत हेरिया, रहा कबीर हिराय।
बूंद
समानी समुंद में, सो कित हेरी जाय॥
हेरत
हेरत हे सखी, रहा कबीर हिराय।
समुंद
समाना बूंद में, सो कित हेरा जाय॥
कबीर
वैद बुलाइया, जो भावै सो लेह।
जिहि
जिहि औषध गुरू मिले, सो सो औषध देह॥
परगट
कहूं तो मारिया, परदा लखै न कोय।
सहना छिपा पयाल में, को कहि बैरी होय॥
सहना छिपा पयाल में, को कहि बैरी होय॥
जैसे
सती पिय संग जरै, आसा सबकी त्याग।
सुघर
कूर सोचै नही, सिख पतिवर्त सुहाग॥
सरवस
सीस चढ़ाइये, तन कृत सेवा सार।
भूख
प्यास सहे ताङना, गुरू के सुरति निहार॥
गुरू
को दोष रती नही, सीष न सोधे आप।
सीष न
छाङै मनमता, गुरूहि दोष का पाप॥
जैसी
सेवा सिष करै, तस फ़ल प्रापत होय।
जो
बोवै सो लोवही, कहैं कबीर बिलोय॥
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