॥चौपदी रमैणी॥
ऊंकार आदि है मूला, राजा परजा एकहि सू ला ।
हम तुम्ह मां है एकै लोहू, एकै प्रान जीवन है मोहू
।
एक ही बास रहै दस मासा, सूतग पातग एकै आसा ।
एक ही जननी जन्या संसारा, कौन ग्यान थैं भये
निनारा ।
ग्यान न पायो बावरे, धरी अविद्या मैड ।
सतगुर मिल्या न मुक्ति फल, ताथैं खाई बैड ।
बालक ह्नै भगद्वारे आया, भग भुगतान कूँ पुरिष
कहावा ।
ग्यान न सुमिरो निरगुण सारा, बिष थैं बिरंचि न किया
बिचारा ।
साध न मिटी जनम की, मरन तुरा ना आइ ।
मन क्रम बचन न हरि भज्या, अंकुर बीज नसाइ ।
तिण चारि सुरही उदिक जु पीया, द्वार दूध बछ कूँ दीया ।
बछा चूखत उपजी न दया, बछा बाँधि बिछोही मया ।
ताका दूध आप दुहि पीया, ग्यान बिचार कछू नहीं
कीया ।
जे कुछ लोगनि सोई किया, माला मंत्रा बादि ही
लीया ।
पीया दूध रूध ह्नै आया, मुई गाइ तब दोष लगाया ?
बाकस ले चमरां कूँ दीन्हीं, तुचा रंगाई करौती
कीन्हीं ।
ले रूकरौती बैठे संगा, ये देखौ पीछे के रंगा ।
तिहि रूकरौती पाँणी पीया, बहु कुछ पांड़े अचिरज
कीया ?
अचिरज कीया लोक में, पीया सुहागल नीर ।
इंद्री स्वारथि सब किया, बंध्या भरम सरीर ।
एकै पवन एक ही पाणी, करी रसोई न्यारी जानी ।
माटी सूं माटी ले पोती, लागी कहाँ धूं छोती ।
धरती लीपि पवित्रा कीन्ही, छोति उपाय लोक बिचि
दीन्हीं ।
याका हम सूं कहौ बिचारा, क्यूँ भव तिरिहौ इहि
आचारा ।
ए पाँखंड जीव के भरमाँ, मानि अमानि जीव के करमाँ
।
करि आचार जू ब्रह्म सतावा, नांव बिना संतोष न पावा
।
सालिगराम सिला करि पूजा, तुलसी तोडि भया नर दूजा
।
ठाकुर ले पाटै पौढ़ावा, भोग लगाइ अरु आप खावा ।
सांच सील का चौका दीजै, भाव भगति कीजै सेवा कीजै
।
भाव भगति की सेवा मानै, सतगुर प्रकट कहै नहीं
छाँनै ।
अनभै उपजि न मन ठहराई, पर की रति मिलि मन न
समाई ।
जब लग भाव भगति नहीं करिहौ, तब लग भवसागर क्यूँ
तिरिहौ ।
भाव भगति बिसवास बिनु, कटै न संसै सूल ।
कहै कबीर हरि भगति बिन, मूकति नहीं रे मूल ।
॥सतपदी रमैणी॥
कहन सुनन कौ जिहि जग कीन्हा, जग भुलाँन सो किनहुँ न
चीन्हा ।
सत रज तम थें कीन्हीं माया ? आपण माझै आप छिपाया ?
तुरक सरीअत जनिये, हिंदू बेद पुरान ।
मन समझन कै कारनै, कछु एक पढ़िये ज्ञान ।
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