हिरदे
ज्ञान न ऊपजे, मन परतीत न होय।
ताको
सदगुरू कहा करै, घनघसि कुल्हरा न होय॥
घनघसिया
जोई मिले, घन घसि काढ़े धार।
मूरख
ते पंडित किया, करत न लागी वार॥
सिष
पूजै गुरू आपना, गुरू पूजे सब साध।
कहै
कबीर गुरू सीष का, मत है अगम अगाध॥
गुरू
सोज ले सीष का, साधु संत को देत।
कहै
कबीरा सौंज से, लागे हरि से हेत॥
सिष
किरपन गुरू स्वारथी, मिले योग यह आय।
कीच
कीच कै दाग को, कैसे सकै छुङाय॥
देस
दिसन्तर मैं फ़िरूं, मानुष बङा सुकाल।
जा
देखै सुख ऊपजै, वाका पङा दुकाल॥
सत को
ढूंढ़त में फ़िरूं, सतिया मिलै न कोय।
जब सत
कूं सतिया मिले, विष तजि अमृत होय॥
स्वामी
सेवक होय के, मन ही में मिलि जाय।
चतुराई
रीझै नहीं, रहिये मन के मांय॥
धन धन
सिष की सुरति कूं, सतगुरू लिये समाय।
अन्तर
चितवन करत है, तुरतहि ले पहुंचाय॥
गुरू
विचारा क्या करै, बांस न ईंधन होय।
अमृत
सींचै बहुत रे, बूंद रही नहि कोय॥
गुरू
भया नहि सिष भया, हिरदे कपट न जाव।
आलो
पालो दुख सहै, चढ़ि पाथर की नाव॥
चच्छु
होय तो देखिये, जुक्ती जानै सोय।
दो
अंधे को नाचनो, कहो काहि पर मोय॥
गुरू
कीजै जानि कै, पानी पीजै छानि।
बिना
विचारै गुरू करै, पङै चौरासी खानि॥
गुरू
तो ऐसा चाहिये, सिष सों कछू न लेय।
सिष तो
ऐसा चाहिये, गुरू को सब कुछ देय॥
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