कबीर
आदू एक है, कहन सुनन कूं दोय।
जल से
पारा होत है, पारा से जल होय॥
दिल
लागा जु दयाल सों, तब कछु अंतर नांहि।
पारा
गलि पानी भया, साहिब साधू मांहि॥
ऐसा
अविगति रूप है, चीन्है बिरला कोय।
कहै
सुनै देखै नहीं, ताते अचरज मोय॥
सत्तनाम
तिरलोक में, सकल रहा भरपूर।
लाजै
ज्ञान सरीर का, दिखवै साहिब दूर॥
कबीर
सुख दुख सब गया, गय सो पिंड सरीर।
आतम
परमातम मिलै, दूधै धोया नीर॥
गुरू
हाजिर चहुदिसि खङे, दुनी न जानै भेद।
कवि
पंडित कूं गम नही, ताके बपुरे वेद॥
जा
कारन हम जाय थे, सनमुख मिलिया आय।
धन
मैली पिव ऊजला, लाग सकी नहि पांय॥
भीतर
मनुवा मानिया, बाहिर कहूं न जाय।
ज्वाला
फ़ेरी जल भया, बूझी जलती लाय॥
तन
भीतर मन मानिया, बाहिर कबहू न लाग।
ज्वाला
ते फ़िरि जल भया, बुझी जलती आग॥
जिन
जेता प्रभु पाइया, ताकूं तेता लाभ।
ओसे
प्यास न भागई, जब लग धसै न आभ॥
अकास
बेली अमृत फ़ल, पंखि मुवे सब झूर।
सारा
जगहि झख मुआ, फ़ल मीठा पै दूर॥
तीखी
सुरति कबीर की, फ़ोङ गई ब्रह्मंड।
पीव
निराला देखिया, सात दीप नौ खंड॥
ना मैं
छाई छापरी, ना मुझ घर नहि गांव।
जो कोई
पूछै मुझसों, ना मुझ जाति न ठांव॥
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