मकरतार सों नेहरा, झलकै अधर विदेह।
सुरति
सोहंगम मिलि रहि, पल पल जुरै सनेह॥
ऐसा
अविगति अलख है, अलख लखा नहि जाय।
जोति
सरूपी राम है, सब में रह्यो समाय॥
मिलि
गय नीर कबीर सों, अंतर रही न रेख।
तीनों
मिलि एकै भया, नीर कबीर अलेख॥
नीर
कबीर अलेख मिलि, सहज निरंतर जोय।
सत्त
सब्द औ सुरति मिलि, हंस हिरंबर होय॥
कहना
था सो कहि दिया, अब कछु कहना नाहिं।
एक रही
दूजी गई, बैठा दरिया मांहि॥
आया
एकहि देस ते, उतरा एक ही घाट।
बिच
में दुविधा हो गई, हो गये बारह बाट॥
तेजपुंज
का देहरा, तेजपुंज का देव।
तेजपुंज
झिलमिल झरै, तहाँ कबीरा सेव॥
खाला
नाला हीम जल, सो फ़िर पानी होय।
जो
पानी मोती भया, सो फ़िर नीर न होय॥
देखो
करम कबीर का, कछु पूरबला लेख।
जाका
महल न मुनि लहै, किय सो दोस्त अलेख॥
मैं था
तब हरि नही, अब हरि है मैं नाहिं।
सकल
अंधेरा मिटि गया, दीपक देखा मांहि॥
सूरत
में मूरत बसै, मूरत में इक तत्व।
ता तत
तत्व विचारिया, तत्व तत्व सो तत॥
फ़ेर
पङा नहि अंग में, नहि इन्द्रियन के मांहि।
फ़ेर
पङा कछु बूझ में, सो निरुवारै नांहि॥
साहेब
पारस रूप है, लोह रूप संसार।
पारस
सो पारस भया, परखि भया टकसार।
मोती
निपजै सुन्न में, बिन सायर बिन नीर।
खोज
करंता पाइये, सतगुरू कहै कबीर॥
या
मोती कछु और है, वा मोती कछु और।
या
मोती है सब्द का, व्यापि रहा सब ठौर॥
दरिया
मांही सीप है, मोती निपजै मांहिं।
वस्तु
ठिकानै पाइये, नाले खाले नांहि॥
चौदा
भुवन भाजि धरै, ताहि कियो बैराट।
कहै
कबीर गुरू सब्द सो, मस्तक डारै काट॥
हमकूं
स्वामी मति कहो, हम हैं गरीब अधार।
स्वामी
कहिये तासु कूं, तीन लोक विस्तार॥
हमकूं
बाबा मति कहो, बाबा है बलियार।
बाबा
ह्वै करि बैठसी, घनी सहेगा मार॥
यह पद
है जो अगम का, रन संग्रामे जूझ।
समुझे
कूं दरसन दिया, खोजत मुये अबूझ॥
सीतल
कोमल दीनता, संतन के आधीन।
बासों
साहिब यौं मिले, ज्यौं जल भीतर मीन॥
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