चाँद
नहीं सूरज नहीं, हता नही ओंकार।
तहाँ
कबीरा संतजन, को जानै संसार॥
धरति
गगन पवनै नही, नहि होते तिथि वार।
तब हरि
के हरिजन हुते, कहैं कबीर विचार॥
धरति
हती नहि पग धरूं, नीर हता नहि न्हाऊं।
माता
ते जनम्या नहीं, क्षीर कहाँ ते खाऊं॥
अगन
नहीं जहँ तप करूं, नीर नहि तहँ न्हाऊं।
धरती
नहीं जहँ पग धरूं, गगन नहिं तहँ जाऊं॥
पांच
तत्व गुन तीन के, आगे मुक्ति मुकाम।
तहाँ
कबीरा घर किया, गोरख दत्त न राम॥
सुर नर
मुनिजन औलिया, ये सब उरली तीर।
अलह
राम की गम नहीं, तहँ घर किया कबीर॥
सुर नर
मुनिजन देवता, ब्रह्मा विस्नु महेस।
ऊंचा
महल कबीर का, पार न पावै सेस॥
जब दिल
मिला दयाल सों, तब कछु अंतर नांहि।
पाला
गलि पानी भया, यौं हरिजन हरि मांहि॥
ममता
मेरा क्या करै, प्रेम उघारी पोल।
दरसन
भया दयाल का, सूल भई सुख सोल॥
सुन्न
सरोवर मीन मन, नीर निरंजन देव।
सदा
समूह सुख बिलसिया, बिरला जानै भेव॥
सुन्न
सरोवर मीन मन, नीर तीर सब देव।
सुधा
सिंधु सुख बिलसहीं, बिरला जाने भेव॥
लौन
गला पानी मिला, बहुरि न भरिहै गून।
हरिजन
हरि सों मिल रहा, काल रहा सिर धुन॥
गुन
इन्द्री सहजे गये, सदगुरू करी सहाय।
घट में
नाम प्रगट भया, बकि बकि मरै बलाय॥
जब लग
पिय परिचय नहीं, कन्या क्वारी जान।
हथ
लेवो हूं सालियो, मुस्किल पङि पहिचान॥
सेजै
सूती रग रम्हा, मांगा मान गुमान।
हथ
लेवो हरि सूं जुर्यो, अखै अमर वरदान॥
पूरे
सों परिचय भया, दुख सुख मेला दूर।
निरमल कीन्ही
आतमा, ताते सदा हजूर॥
मैं
लागा उस एक सों, एक भया सब मांहि।
सब
मेरा मैं सबन का, तहाँ दूसरा नांहि॥
भली भई
जो भय पङी, गई दिसा सब भूल।
पाला
गलि पानी भया, ढूलि मिला उस कूल॥
चितमनि
पाई चौहटे, हाङी मारत हाथ।
मीरां
मुझ पर मिहर करि, मिला न काहू साथ॥
बरसि अमृत
निपज हिरा, घटा पङे टकसार।
तहाँ
कबीरा पारखी, अनुभव उतरै पार॥
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