गुरुवार, जुलाई 12, 2018

राम-नाम की उत्पत्ति


कबीर साहब बोले - धर्मदास, भवसागर की ओर चलते हुये मैं सबसे पहले ब्रह्मा के पास आया, और ब्रह्मा को आदिपुरुष का शब्द उपदेश प्रकट किया । तब ब्रह्मा ने मन लगाकर सुनते हुये आदिपुरुष के चिह्न लक्षण के बारे में बहुत पूछा ।

उस समय निरंजन को संदेह हुआ कि ब्रह्मा मेरा बङा लङका है, ज्ञानी की बातों में आकर वह उनके पक्ष में न चला जाय । तब निरंजन ने ब्रह्मा की बुद्धि फ़ेरने का उपाय किया क्योंकि निरंजन मन के रूप में सबके भीतर बैठा हुआ है । अतः वह ब्रह्मा के शरीर में भी विराजमान था उसने ब्रह्मा की बुद्धि को अपनी ओर फ़ेर दिया ।

(सब जीवों के भीतर मनस्वरूपनिरंजन का वास है जो सबकी बुद्धि अपने अनुसार घुमाता फ़िराता है)

बुद्धि फ़िरते ही ब्रह्मा ने मुझसे कहा - वह ईश्वर निराकार, निर्गुण, अविनाशी, ज्योतिस्वरूप और शून्य का वासी है उसी पुरुष यानी ईश्वर का वेद वर्णन करता है । वेद आज्ञानुसार ही मैं उस पुरुष को मानता और समझता हूँ ।

जब मैंने देखा कि काल-निरंजन ने ब्रह्मा की बुद्धि को फ़ेर दिया है, और उसे अपने पक्ष में मजबूत कर लिया है, तो मैं वहाँ से विष्णु के पास आ गया । विष्णु को भी वही आदिपुरुष का शब्द उपदेश किया परन्तु काल के वश में होने के कारण विष्णु ने भी उसे ग्रहण नहीं किया ।

विष्णु ने मुझसे कहा - मेरे समान अन्य कौन है मेरे पास चार पदार्थ यानी फ़ल हैं । धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष मेरे अधिकार में है, उनमें से जो चाहे, मैं किसी जीव को दूँ ।

मैंने कहा विष्णु सुनो, तुम्हारे पास यह कैसा मोक्ष है? मोक्ष अमरपद तो मृत्यु के पार होने से यानी आवागमन छूटने पर ही प्राप्त होता है । तुम स्वयं स्थिर शांत नहीं हो तो दूसरों को स्थिर शांत कैसे करोगे? झूठी साक्षी.. झूठी गवाही से तुम भला किसका भला करोगे, और इस अवगुण को कौन भरेगा?

मेरी निर्भीक सत्यवाणी सुनकर विष्णु भयभीत होकर रह गये, और अपने ह्रदय में इस बात का बहुत डर माना ।

उसके बाद मैं नागलोक चला गया, और वहाँ शेषनाग से अपनी कुछ बातें कहने लगा ।

मैंने कहा - आदिपुरुष का भेद कोई नहीं जानता है, सभी काल की छाया में लगे हुये हैं और अज्ञानता के कारण काल के मुँह में जा रहे हैं । भाई, अपनी रक्षा करने वाले को पहचानो यहाँ काल से तुम्हें कौन छुङायेगा ।

ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र जिसका ध्यान करते हैं, और वेद जिसका गुण दिन रात गाते हैं ।
वही आदिपुरुष तुम्हारी रक्षा करने वाले हैं वही तुम्हें इस भवसागर से पार करेंगे । रक्षा करने वाला और कोई नहीं है । विश्वास करो मैं तुम्हें उनसे मिलाता हूँ साक्षात्कार कराता हूँ ।

लेकिन विष खाने से उत्पन्न शेषनाग का बहुत तेज स्वभाव था अतः उसके मन में मेरे वचनों का विश्वास नहीं हुआ । जब ब्रह्मा, विष्णु और शेषनाग ने मेरे द्वारा सत्यपुरुष का संदेश मानने से इंकार कर दिया तब मैं शंकर के पास गया । परन्तु शंकर को भी सत्यपुरुष का यह संदेश अच्छा नहीं लगा ।

शंकर ने कहा - मैं तो निरंजन को मानता हूँ, और बात को मन में नहीं लाता ।

तब वहाँ से मैं भवसागर की ओर चल दिया ।

कबीर साहब आगे बोले - जब मैं इस भवसागर यानी मृत्युमंडल में आया तब मैंने यहाँ किसी जीव को सतपुरुष की भक्ति करते नहीं देखा । ऐसी स्थिति में सतपुरुष का ज्ञान उपदेश किससे कहता? जिससे कहूँ वह अधिकांश तो यम के वेश में दिखायी पङे ।

विचित्र बात यह थी कि जो घातक विनाश करने वाला काल-निरंजन है । लोगों को उसका तो विश्वास है, और वे उसी की पूजा करते हैं । और जो रक्षा करने वाला है  उसकी ओर से वे जीव उदास हैं उसके पक्ष में न बोलते हैं, न सुनते हैं । जीव जिस काल को जपता है वही उसे धरकर खा जाता है ।

तब मेरे शब्द उपदेश से उसके मन में चेतना आती है । जीव जब दुखी होता है तब ज्ञान पाने की बात उसकी समझ में आती है लेकिन उससे पहले जीव मोहवश कुछ देखता समझता नहीं ।

तब ऐसा भाव मेरे मन में उपजा कि काल-निरंजन की शाखा वंश संतति को मिटा डालूँ, और उसे अपना प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाऊँ । यमनिरंजन से जीवों को छुङा लूँ, तथा उन्हें अमरलोक भेज दूँ । जिनके कारण मैं शब्द उपदेश को रटते हुये फ़िरता हूँ वे ही जीव मुझे पहचानते तक नहीं । सब जीव काल के वश में पङे हैं, और सत्यपुरुष के नाम उपदेशरूपी अमृत को छोङकर विषयरूपी विष ग्रहण कर रहे हैं ।

लेकिन सत्यपुरुष का आदेश ऐसा नहीं है । यही सोचकर मैंने अपने मन में निश्चय किया कि अमरलोक उसी जीव को लेकर पहुँचाऊँ जो मेरे सारशब्द को मजबूती से ग्रहण करे ।

धर्मदास इसके आगे जैसा चरित्र हुआ वह तुम ध्यान लगाकर सुनो । मेरी बातों से विचलित होकर ब्रह्मा, विष्णु, शंकर और ब्रह्मा के पुत्र सनकादिक सबने मिलकर शून्य में ध्यान समाधि लगायी ।

समाधि में उन्होंने प्रार्थना की - हे ईश्वर, हम किस नामका सुमरन करें, और तुम्हारा कौन सा नाम ध्यान के योग्य है?

धर्मदास, जैसे सीप, स्वाति नक्षत्र का स्नेह अपने भीतर लाती है ठीक उसी प्रकार उन सबने ईश्वर के प्रति प्रेमभाव से शून्य में ध्यान लगाया । उसी समय निरंजन ने उनको उत्तर देने का उपाय सोचा, और शून्यगुफ़ासे अपना शब्द उच्चारण किया ।

तब इनकी ध्यान समाधि में रर्रा यानी राशब्द बहुत बार उच्चारित हुआ । उसके आगे म अक्षर उसकी पत्नी माया यानी अष्टांगी ने मिला दिया । इस तरह रा और म दोनों अक्षरों को बराबर मिलाने पर राम शब्द बना ।

राम नाम उन सबको बहुत अच्छा लगा, और सबने राम नाम सुमिरन की ही इच्छा की । बाद में उसी राम नाम को लेकर उन्होंने संसार के जीवों को उपदेश दिया, और सुमिरन कराया । काल-निरंजन और माया के इस जाल को कोई पहचान समझ नहीं पाया, और इस तरह राम नाम की उत्पत्ति हुयी । इस बात को तुम गहरायी से समझो ।

धर्मदास बोले - आप पूरे सदगुरू हैं आपका ज्ञान सूर्य के समान है जिससे मेरा सारा अज्ञान अंधेरा दूर हो गया है । संसार में माया मोह का घोर अंधेरा है जिसमें विषय विकारी लालची जीव पङे हुये हैं ।

जब आपका ज्ञानरूपी सूर्य प्रकट होता है और उससे जीव का मोह अंधकार नष्ट हो जाये, यही आपके शब्द उपदेश के सत्य होने का प्रमाण है । मेरे धन्य भाग्य जो मैंने आपको पाया आपने मुझ अधम को जगा लिया ।


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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।