गुरुवार, जुलाई 12, 2018

चौरासी क्यों बनी


कबीर साहब बोले - धर्मदास, मैंने चारो खानि के लक्षण तुमसे कहे । अब सुनो, मनुष्य योनि की अवधि समाप्त होने से पहले किसी कारण से देह छूट जाय, वह फ़िर से संसार में मनुष्य जन्म लेता है । अब उसके बारे में सुनो ।

धर्मदास बोले - मेरे मन में एक संशय उठा है, वह मुझे समझाईये । जब चौरासी लाख योनियों में भरमने, भटकने के बाद ये जीव मनुष्य देह पाता है, और मनुष्य देह पाया हुआ ये जीव फ़िर देह (असमय) छूटने पर पुनः मनुष्य देह पाता है, तो मृत्यु होने और पुनः मनुष्य देह पाने की यह संधि कैसे हुयी? यह विधि मुझे समझाईये, और उस पुनः मनुष्य जन्म लेने वाले मनुष्य के गुण लक्षण भी कहो ।

कबीर साहब बोले धर्मदास, आयु शेष रहते जो मनुष्य मर जाता है फ़िर वह शेष बची आयु को पूरा करने हेतु मनुष्य शरीर धारण करके आता है । जो अज्ञानी मूर्ख फ़िर भी इस पर विश्वास न करे, वह दीपक बत्ती जलाकर देखे, और बहुत प्रकार से उस दीपक में तेल भरे । परन्तु वायु का झोंका (मृत्यु आघात) लगते ही वह दीपक बुझ जाता है, (भले ही उसमें खूब तेल भरा हो) उसे बुझे दीपक को आग से फ़िर जलाये तो वह दीपक फ़िर से जल जाता है । इसी प्रकार जीव मनुष्य फ़िर से देह धारण करता है ।

धर्मदास, अब उस मनुष्य के लक्षण भी सुनो, उसका भेद तुमसे नही छुपाऊँगा ।
मनुष्य से फ़िर मनुष्य का शरीर पाने वाला वह मनुष्य शूरवीर होता है । भय और डर उसके पास भी नहीं फ़टकता, मोह माया ममता उसे नहीं व्यापते । उसे देखकर दुश्मन डर से कांपते हैं ।

वह सतगुरू के सत्य शब्द को विश्वास पूर्वक मानता है । निंदा को वह जानता तक नहीं है । वह सदा सदगुरू के श्रीचरणों में अपना मन लगाता है, और सबसे प्रेममयी वाणी बोलता है । अज्ञानी होकर (जानते हुये भी) ज्ञान को पूछता, समझता है । उसे सत्यनाम का ज्ञान और परिचय करना बेहद अच्छा लगता है ।

धर्मदास, ऐसे लक्षणों से युक्त मनुष्य से ज्ञान-वार्ता करने का अवसर कभी खोना नहीं चाहिये, और अवसर मिलते ही उससे ज्ञान चर्चा करनी चाहिये । जो जीव सदगुरू के शब्द (नाम या महामंत्र) रूपी उपदेश को पाता है, और भली प्रकार ग्रहण करता है । उसके जन्म जन्म का पाप और अज्ञान रूपी मैल छूट जाता है ।

सत्यनाम का प्रेमभाव से सुमरन करने वाला जीव, भयानक काल-माया के फ़ंदे से छूटकर सत्यलोक जाता है । सदगुरू के शब्द उपदेश को ह्रदय में धारण करने वाला जीव अमृतमय अनमोल होता है । वह सत्यनाम साधना के बल पर अपने असली घर अमरलोक (या सत्यलोक) चला जाता है ।

जहाँ सदगुरू के हंसजीव सदा आनन्द करते हैं, और अमृत का आहार करते हैं ।
जबकि काल-निरंजन के जीव कागदशा (विष्ठा, मल के समान घृणित वासनाओं के लालची) में भटकते हुये जन्म-मरण के काल झूले में झूलते रहते हैं । सत्यनाम के प्रताप से काल-निरंजन जीव को सत्यलोक जाने से नहीं रोकता क्योंकि महाबली काल-निरंजन केवल इसी से भयभीत रहता है । उस जीव पर सदगुरू के वंश की छाप (दीक्षा के समय लगने वाली नाममोहर) देखकर काल बेवशी से सिर झुकाकर रह जाता है ।

धर्मदास बोले - आपने चार खानि के जो विचार कहे वो मैंने सुने । अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि चौरासी लाख योनियों की यह धारा का विस्तार किस कारण से किया गया, और इस अविनाशी जीव को अनगिनत कष्टों में डाल दिया गया । मनुष्य के कारण ही यह सृष्टि बनायी गयी है, या कि कोई और जीव को भी भोग भुगतने के लिये बनायी गयी है?

कबीर साहब बोले - धर्मदास, सभी योनियों में श्रेष्ठ यह मनुष्य देह सुख को देने वाली है । इस मनुष्य देह में ही गुरूज्ञान समाता है, जिसको प्राप्त कर मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है । ऐसा मनुष्य शरीर पाकर जीव जहाँ भी जाता है, सदगुरू की भक्ति के बिना दुख ही पाता है ।

मनुष्य देह को पाने के लिये जीव को चौरासी के भयानक महाजाल से गुजरना ही होता है फ़िर भी यह देह पाकर मनुष्य अज्ञान और पाप में ही लगा रहता है, तो उसका घोर पतन निश्चित है । उसे फ़िर से भयंकर कष्टदायक साढ़े बारह लाख साल आयु की चौरासी धारा से गुजरना होगा । दर बदर भटकना होगा ।

सत्यज्ञान के बिना मनुष्य तुच्छ विषय भोगों के पीछे भागता हुआ अपना जीवन बिना परमार्थ के ही नष्ट कर लेता है । ऐसे जीव का कल्याण किस तरह हो सकता है, उसे मोक्ष भला कैसे मिलेगा? अतः इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये सतगुरू की तलाश और उनकी सेवा भक्ति अति आवश्यक है ।

धर्मदास, मनुष्य के भोग उद्देश्य से चौरासी धारा या चौरासी लाख योनियाँ रची गयीं हैं । सांसारिक माया और मन इन्द्रियों के विषयों के मोह में पङकर मनुष्य की बुद्धि (विवेक) का नाश हो जाता है । वह मूढ़, अज्ञानी ही हो जाता है, और वह सदगुरू के शब्द उपदेश को नहीं सुनता तो वह मनुष्य चौरासी को नहीं छोङ पाता । उस अज्ञानी जीव को भयंकर काल-निरंजन चौरासी में लाकर डालता है ।

जहाँ भोजन, नींद, डर और मैथुन के अतिरिक्त किसी पदार्थ का ज्ञान या अन्य ज्ञान बिलकुल नहीं है । चौरासी लाख योनियों के विषय वासना के प्रबल संस्कार के वशीभूत हुआ ये जीव बार बार क्रूर काल के मुँह में जाता है, और अत्यन्त दुखदायी जन्म मरण को भोगता हुआ भी, ये अपने कल्याण का साधन नहीं करता ।

धर्मदास, अज्ञानी जीवों की इस घोर विपत्ति संकट को जानकर उन्हें सावधान करने के लिये (सन्तों ने) पुकारा, और बहुत प्रकार से समझाया कि मनुष्य शरीर पाकर सत्यनाम ग्रहण करो, और इस सत्यनाम के प्रताप से अपने निजधाम सत्यलोक को प्राप्त करो ।

आदिपुरुष के विदेह (बिना वाणी से जपा जाने वाला) और स्थिर आदिनाम (जो शुरूआत से एक ही है) को जो जाँच समझ कर (सच्चे गुरू से - मतलब ये नाम मुँह से जपने के बजाय धुनि रूप होकर प्रकट हो जाय यही सच्चे गुरू और सच्ची दीक्षा की पहचान है) जो जीव ग्रहण करता है, उसका निश्चित ही कल्याण होता है ।

गुरू से प्राप्त ज्ञान से आचरण करता हुआ वह जीव सार को ग्रहण करने वाला नीर-क्षीर विवेकी (हंस की तरह दूध और पानी के अन्तर को जानने वाला) हो जाता है, और कौवे की गति (साधारण और दीक्षारहित मनुष्य) त्याग कर हंसगति वाला हो जाता है । इस प्रकार की ज्ञानदृष्टि के प्राप्त होने से वह विनाशी तथा अविनाशी का विचार करके इस नश्वर, नाशवान जङ देह के भीतर ही अगोचर और अविनाशी परमात्मा को देखता है ।

धर्मदास, विचार करो वह निःअक्षर (शाश्वत नाम) ही सार है । जो अक्षर (ज्योति जिस पर सभी योनियों के शरीर बनते हैं..ध्यान  की एक ऊँची स्थिति) से प्राप्त होता है ।
सब जङ तत्वों से परे, वही असली सारतत्व है ।


कोई टिप्पणी नहीं:

WELCOME

मेरी फ़ोटो
Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।