गुरुवार, जुलाई 12, 2018

कबीर साहब और धर्मदास


कबीर साहब के शिष्य, धनी धर्मदास का जन्म बहुत ही धनी वैश्य परिवार में हुआ था । बाद में कबीर साहब की शरण में आकर उनसे परमात्म-ज्ञान लेकर धर्मदास ने अपना जीवन सार्थक और परिपूर्ण किया इस तरह उन्हें धर्मदास की जगह ‘धनी धर्मदास’ कहा जाने लगा । धर्मदास वैष्णव थे, और ठाकुर-पूजा किया करते थे । अपनी मूर्तिपूजा के इसी क्रम में धर्मदास मथुरा आये जहाँ उनकी भेंट कबीर साहब से हुयी ।

धर्मदास दयालु, व्यवहारी और पवित्र जीवन जीने वाले इंसान थे अत्यधिक धन, संपत्ति के बाद भी अहंकार उन्हें छूआ तक नहीं था । वे अपने हाथों से स्वयं भोजन बनाते थे, और पवित्रता के लिहाज से जलावन लकङी को इस्तेमाल करने से पहले धोया करते थे ।

एक बार इसी समय में जब वह मथुरा में भोजन तैयार कर रहे थे । उसी समय कबीर से उनकी भेंट हुयी । उन्होंने देखा कि भोजन बनाने के लिये जो लकङियाँ चूल्हे में जल रही थीं उसमें से ढेरों चीटिंयाँ निकलकर बाहर आ रही थी ।

धर्मदास ने जल्दी से शेष लकङियों को बाहर निकाल कर चीटिंयों को जलने से बचाया । उन्हें बहुत दुख हुआ और वे अत्यन्त व्याकुल हो उठे । लकङियों में जलकर मर गयी चीटियों के प्रति उनके मन में बेहद पश्चाताप हुआ ।

वे सोचने लगे - आज मुझसे महापाप हुआ है ।

अपने इसी दुख की वजह से उन्होंने भोजन भी नहीं खाया । उन्होंने सोचा कि जिस भोजन के बनने में इतनी चीटियाँ जलकर मर गयी हों उसे कैसे खा सकता हूँ । उनके हिसाब से वह दूषित भोजन खाने योग्य नहीं था । अतः उन्होंने वह भोजन किसी दीन-हीन साधु, महात्मा आदि को कराने का विचार किया ।

वो भोजन लेकर बाहर आये तो उन्होंने देखा कि कबीर एक घने शीतल वृक्ष की छाया में बैठे हुये थे । धर्मदास ने उनसे भोजन के लिये निवेदन किया ।

कबीर साहब ने कहा - सेठ धर्मदास, जिस भोजन को बनाते समय हजारों चींटियाँ जलकर मर गयीं उस भोजन को मुझे कराकर ये पाप तुम मेरे ऊपर क्यों लादना चाहते हो । तुम तो रोज ही ठाकुर जी की पूजा करते हो फ़िर उन्हीं भगवान से क्यों नहीं पूछ लिया था कि इन लकङियों के अन्दर क्या है ?

धर्मदास को बेहद आश्चर्य हुआ कि इस साधु को ये सब बात कैसे पता चली ।
उस समय तो धर्मदास के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब कबीर ने वे चीटिंया भोजन से जिंदा निकलते हुये दिखायीं ।

इस रहस्य को वे समझ न सके और उन्होने दुखी होकर कहा - बाबा, यदि मैं भगवान से इस बारे में पूछ सकता तो मुझसे इतना बङा पाप क्यों होता ।

धर्मदास को पाप के महाशोक में डूबा देखकर कबीर ने अध्यात्म-ज्ञान के गूढ़ रहस्य बताये । जब धर्मदास ने उनका परिचय पूछा तो कबीर ने अपना नाम सदगुरू कबीर साहब और निवासी अमरलोक (सत्यलोक) बताया ।

इसके कुछ देर बाद कबीर अंतर्ध्यान हो गये ।

धर्मदास को जब कबीर बहुत दिनों तक नहीं मिले तो वो व्याकुल होकर जगह जगह उन्हें खोजते फ़िरे और उनकी स्थिति पागलों के समान हो गयी ।

तब उनकी पत्नी ने सुझाव दिया - तुम ये क्या कर रहे हो उन्हें खोजना बहुत आसान है जैसे कि चींटी, चींटा गुङ को खोजते हुये खुद ही आ जाते हैं ।

धर्मदास ने कहा - क्या मतलब?

पत्नी ने कहा - खूब भंडारे कराओ, दान दो । हजारों साधु अपने आप आयेंगे जब वह साधु तुम्हें दिखे, तो उसे पहचान लेना ।

धर्मदास को बात उचित लगी और वे ऐसा ही करने लगे ।

उन्होंने अपनी सारी संपत्ति खर्च कर दी पर वह साधु (कबीर) नहीं मिला । फिर बहुत समय भटकने के बाद उन्हें कबीर काशी में मिले परन्तु उस समय वे वैष्णव वेश में थे । फ़िर भी धर्मदास ने उन्हें पहचान लिया, और उनके चरणों में गिर पङे ।

धर्मदास बोले - सदगुरू महाराज, मुझ पर कृपा करें, और मुझे अपनी शरण में लें ।
गुरूदेव मुझ पर प्रसन्न हों मैं उसी समय से आपको खोज रहा हूँ । आज आपके दर्शन हुये हैं ।

कबीर बोले धर्मदास, तुम मुझे कहाँ खोज रहे थे । तुम तो चींटी, चींटों को खोज रहे थे, सो वे तुम्हारे भन्डारे में आये ।

इस पर धर्मदास को अपनी मूर्खता पर बङा पश्चाताप हुआ।

तब उन्हें प्रायश्चित भावना में देख कर कबीर साहब ने फ़िर कहा - लेकिन तुम बहुत भाग्यशाली हो, जो तुमने मुझे पहचान लिया । अब तुम धैर्य धारण करो मैं तुम्हें जीवन के आवागमन से मुक्त कराने वाला मोक्ष-ज्ञान दूँगा ।

इसके बाद धर्मदास निवेदन करके कबीर साहब को अपने साथ बाँधोगढ ले आये ।
फ़िर तो बाँधोगढ में कबीर के श्रीमुख से अलौकिक आत्मज्ञान सतसंग की अविरल धारा ही बहने लगी । दूर दूर से लोग सतसंग सुनने आने लगे ।

धर्मदास और उनकी पत्नी ‘आमिन’ ने महामंत्र की दीक्षा ली । बाँधोगढ के नरेश भी कबीर के सतसंग में आने लगे, और बाद में दीक्षा लेकर वे भी कबीर साहब के शिष्य बने ।

यहाँ कबीर ने बहुत से उपदेश दिये । जिन्हें उनके शिष्यों ने बाँधोगढ नरेश और धनी धर्मदास के आदेश पर संकलित कर ग्रन्थ का रूप दिया ।
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विशेष - जब भी किसी सच्चे सन्त का प्राकटय होता है तो कालपुरुष भयभीत हो जाता है कि अब ये जीवों को मोक्ष-ज्ञान देकर उनका उद्धार कर देगा । इससे हरसंभव बचाव के लिये वो अपने ‘कालदूत’ वहाँ भेज देता है ।

धर्मदास का पुत्र ‘नारायण दास’ जो कालदूत था । कबीर का बहुत विरोध करता था लेकिन उसकी एक भी नहीं चली । खुद कबीर के पुत्र के रूप में ‘कमाल’ कालदूत था वह भी कबीर का बहुत विरोध करता था ।

बाद में कबीर ने धर्मदास को सुयोग्य शिष्य जानते हुये मोक्ष का अनमोल ज्ञान दिया और साथ ही ये ताकीद भी की ।

धर्मदास तोहे लाख दुहाई, सारशब्द बाहिर नहीं जाई ।

धर्मदास ने कहा -

सारशब्द बाहिर नहीं जाई, तो हंसा लोक को कैसे जाई?
कबीर साहिब ने कहा जो अपना होय, तो दियो बतायी।

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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।