गुरुवार, जनवरी 05, 2012

संगति को अंग






संगति को अंग

कबीर संगति साधु की, नित प्रति कीजै जाय।
दुरमति दूर बहावसी, देसी सुमति बताय॥

कबीर संगति साधु की, कबहूं न निस्फ़ल जाय।
जो पै बोवै भूमि के, फ़ूलै फ़लै अघाय॥

कबीर संगति साधु की, जौ की भूसी खाय।
खीर खांड भोजन मिलै, साकट संग न जाय॥

कबीर संगति साधु की, ज्यौं गंधी का बास।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तो भी बास सुवास॥

कबीर संगति साधु की, निस्फ़ल कभी न होय।
होसी चंदन वासना, नीम न कहसी कोय॥

कबीर संगति साधु की, जो करि जानै कोय।
सकल बिरछ चंदन भये, बांस न चंदन होय॥

 कबीर चंदन संग से, बेधे ढाक पलास।
आप सरीखा करि लिया, जो ठहरा तिन पास॥

मलयागिरि के पेङ सों, सरप रहै लिपटाय।
रोम रोम विष भीनिया, अमृत कहा समाय॥

एक घङी आधी घङी, आधी हूं पुनि आध।
कबीर संगति साधु की, कटै कोटि अपराध॥

घङी ही की आधी घङी, भाव भक्ति में जाय।
सतसंगति पल ही भली, जम का धका न खाय॥

जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहार।
सत्तनाम रसना बसै, लीजै जनम सुधार॥

ते दिन गये अकारथी, संगति भई न सन्त।
प्रेम बिना पसु जीवना, भक्ति बिना भगवंत॥

जा घर गुरू की भक्ति नहीं, संत नही मिहमान।
ता घर जम डेरा दिया, जीवत भये मसान॥

रिद्धि सिद्धि मांगू नहि, मांगूं तुम पै येह।
नित प्रति दरसन साधु का, कहै कबीर मुहि देह॥

मेरा मन हंसा रमै, हंसा गगनि रहाय।
बगुला मन मानै नहीं, घर आंगन फ़िर जाय॥

कबीरा वन वन मैं फ़िरा, ढ़ूंढ़ि फ़िरा सब गाम।
राम सरीखा जन मिलै, तब पूरा ह्वै काम॥

कबीर तासों संग कर, जो रे भजिहैं राम।
राजा राना छत्रपति, नाम बिना बेकाम॥

कबीर लहरि समुद्र की, कभी न निस्फ़ल जाय।
बगुला परखि न जानई, हंसा चुगि चुगि खाय॥

कबीर मन पंछी भया, भावै तहवाँ जाय।
जो जैसी संगति करै, सो तैसा फ़ल पाय॥

कबीर खाई कोट की, पानी पिवै न कोय।
जाय मिले जब गंग में, सब गंगोदक होय॥

कबीर कलह रु कलपना, सतसंगति से जाय।
दुख वासों भागा फ़िरै, सुख में रहै समाय॥

संगति कीजै सन्त की, जिनका पूरा मन।
अनतोले ही देत हैं, नाम सरीखा धन॥

साधु संग अन्तर पङे, यह मति कबहूं होय।
कहै कबीर तिहुलोक में, सुखी न देखा कोय॥

मथुरा कासी द्वारिका, हरिद्वार जगन्नाथ।
साधु संगति हरि भजन बिन कछू न आवै हाथ॥

साखि सब्द बहुते सुना, मिटा न मन का दाग।
संगति सों सुधरा नही, ताका बङा अभाग॥

साधुन के सतसंग ते, थर थर कांपै देह।
कबहूं भाव कुभाव ते, मत मिटि जाय सनेह॥

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय॥

राम राम रटिबो करै, निसदिन साधुन संग।
कहो जु कौन विचारते, नैना लागत रंग॥

मन दीया कहुं और ही, तन साधुन के संग।
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागे रंग॥

भुवंगम बास न बेधई, चंदन दोष न लाय।
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय॥


1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

आपको हमारा आत्मिक प्रणाम स्वीकार्य हो।
आपके लेख तपती दोपहरी मेँ शीतल छाँव कीतरह हैँ।
आज के समय मेँ हमारे कुछ भाइयोँ को तो ईश्वर मेँही विश्वाश नहीँ है!कुछ भाइयोँ को कहीँ कुछ पढ़सुन कर थोड़ा बहुत विश्वाश हो भी जाता है,तो साँसारिक मित्थ्या सुखो मे पड़कर भटक जाते हैं।
जितनी लगन से मेहनत हम धन संचय के लिए करते हैँ,हम उतनी भी नहीँ करना चाहते?
कबीर साहब का एक दोहा याद आ रहाहै,
कामी, क्रोधी,लालची।इनते भक्ति न होय।भक्ति करै कोइ सूरमा। जाति वर्ण कुल खोय।
जय श्री सतगुरुवे नमः

WELCOME

मेरी फ़ोटो
Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।