साहिब
जासों ना रुचै, सो हमसों जनि होय।
गुरू
की आज्ञा में रहूं, बल बुधि आपा खोय॥
साहिब
के दरबार में, कमी काहू की नांहि।
बंदा
मौज न पावहीं, चूक चाकरी मांहि॥
द्वार
धनी के पङि रहै, धका धनी का खाय।
कबहुक
धनी निवाजिहै, जो दर छांङि न जाय॥
आस करै
बैकुंठ की, दुरमति तीनों काल।
सुक्र
कही बलि ना करी, तातै गयो पाताल॥
गुरू
आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल।
लोक
वेद दोनौं गये, आगे सिर पर काल॥
भुक्ति
मुक्ति मांगौं नहीं, भक्ति दान दे मोहि।
और कोइ
जांचौं नहीं, निसदिन जांचौं तोहि॥
भोग
मोक्ष मांगों नहीं, भक्ति दान गुरूदेव।
और नही
कुछ चाहिये, निसदिन तेरी सेव॥
यह मन
ताको दीजिये, सांचा सेवक होय।
सिर
ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय॥
अनराते
सुख सोवना, राते निंद न आय।
ज्यौं
जल छूटी माछरी, तलफ़त रैंन बिहाय॥
राता
राता सब कहै, अनराता नहि कोय।
राता
सोई जानिये, जा तन रक्त न होय॥
राता
रक्त न नीकसे, जो तन चीरै कोय।
जो
राता गुरू नाम सों, ता तन रक्त न होय॥
सीलवंत
सुर ज्ञान मत, अति उदार चित होय।
लज्जावान
अति निछलता, कोमल हिरदा सोय॥
दयावंत
धरमक ध्वजा, धीरजवान प्रमान।
सन्तोषी
सुखदायका, सेवक परम सुजान॥
चतुर
विवेकी धीर मत, छिमावान बुधिवान।
आज्ञावान
परमत लिया, मुदित प्रफ़ुल्लित जान॥
ज्ञानी
अभिमानी नहीं, सब काहू सों हेत।
सत्यवान
परमारथी, आदर भाव सहेत॥
पट
दरसन को प्रेम करि, असन बसन सों पोप।
सेव
करैं हरिजनन की, हरषित परम संतोष॥
यह सब
लच्छन चित धरै, अप लच्छन सब त्याग।
सावधान
सम ध्यान है, गुरू चरनन में लाग॥
गुरूमुख
गुरू चितवत रहै, जैसे मनी भुवंग।
कहैं
कबीर बिसरै नहीं, यह गुरूमुख को अंग॥
गुरूमुख
गुरू चितवत रहै, जैसे साह दिवान।
और कभी
नहि देखता, है वाही को ध्यान॥
गुरूमुख
गुरू आज्ञा चलै, छांङि देइ सब काम।
कहैं
कबीर गुरूदेव को, तुरत करै परनाम॥
उलटे
सुलटे वचन के, सीष न मानैं दूख।
कहैं
कबीर संसार में, सो कहिये गुरूमुख॥
सुरति
सुहागिन सोइ सहि, जो गुरू आज्ञा मांहि।
गुरू
आज्ञा जो मेटहीं, तासु कुसल ह्वै नांहि॥
गुरू
आज्ञा लै आवही, गुरू आज्ञा लै जाय।
कहैं
कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय॥
कहैं
कबीर गुरू प्रेमवश, क्या नियरै क्या दूर।
जाका
चित जासों बसै, सो तिहि सदा हजूर॥
कबीर
गुरू औ साधु कूं, सीस नवावै जाय।
कहैं
कबीर सो सेवका, महा परम पद पाय॥
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