जब लग
आसा देह की, तब लग भक्ति न होय।
आसा
त्यागी हरि भजै, भक्त कहावै सोय॥
चार
चिह्न हरि भक्ति के, प्रगट दिखाई देत।
दया
धर्म आधीनता, परदुख को हरि लेत॥
और
कर्म सब कर्म हैं, भक्ति कर्म निहकर्म।
कहैं
कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म॥
भक्ति
भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न आई काज।
जिहिको
कियो भरोसवा, तिहिते भाई गाज॥
इन्द्र
राजसुख भोगकर, फ़िर भौसागर मांहि।
यह
सरगुन की भक्ति है, निर्भय कबहूं नांहि॥
भक्त
आप भगवान है, जानत नाहि अयान।
सीस
नबावै साधु कूं, बूझि करै अभिमान॥
सत्त
भक्ति तरवार है, बांधे बिरला कोय।
कोइ एक
बांधे सूरमा, तन मन डारै खोय॥
भक्ति
महल बहु ऊंच है, दूरहि ते दरसाय।
जो कोई
जन भक्ति करै, सोभा बरनि न जाय॥
भक्तन
की यह रीत है, बँधे करै जो भाव।
परमारथ
के कारनै, या तन रहै कि जाव॥
भक्ति
भक्ति बहु कठिन है, रती न चाले खोट।
निराधार
का खेल है, अधर धार की चोट॥
भक्ति
निसैनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय।
नीचै
बाघिन लुकि रही, कुचल पङे कूं खाय॥
भक्ति
भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जानै भेव।
पूरन
भक्ति जब मिलै, कृपा करै गुरूदेव॥
सदगुरू
की किरपा बिना, सत की भक्ति न होय।
मनसा
वाचा कर्मना, सुनि लीजो सब कोय॥
दुख
खंडन भव मेटना, भक्ति मुक्ति बिसराम।
वा घर
राचे साथ री, यही भक्ति को नाम॥
भक्ति
बीज है प्रेम का, परगट पृथ्वी मांहि।
कहै
कबीर बोया घना, निपजै कोइक ठांहि॥
भक्ति
भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति भक्ति में फ़ेर।
एक
भक्ति तो अजब है, इक है दमङी सेर॥
भक्त
उलटि पीछै फ़िरे, संत धरै नहि पांव।
परतछ
दीसै जीवताँ, मुआ मांहिला भाव॥
दया
गरीबी दीनता, सुमता सील करार।
ये
लच्छन हैं भक्ति के, कहै कबीर विचार॥
सलिल
भक्त कहुं ना तरै, जावै नरक अघोर।
सतगुरू
सें सनमुख नहीं, धर्मराय के चोर॥
संत
सुहागी सूरमा, सब्दै उठे जाग।
सलिल
सब्द मानै नहीं, जरि बरि लागे आग॥
सदगुरू
सब्द उथापही, अपनी महिमा लाय।
कहैं
कबीर वा जीव कूं, काल घसीटै जाय॥
सांच
सब्द खाली करै, आपन होय सयान।
सो जीव
मनमुखी भये, कलियुग के व्रतमान॥
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