मन
माला तन मेखला, भय की करै भभूत।
राम
मिला सब देखता, सो जोगी अवधूत॥
माला
फ़ेरै मनमुखी, बहुतक फ़िरै अचेत।
गांगी रोलै
बहि गया, हरि सों किया न हेत॥
माला
फ़ेरै कछु नहीं, डारि मुआ गल भार।
ऊपर
ढ़ोला हींगला, भीतर भरी भंगार॥
माला
फ़ेरै क्या भयाम गांठ न हिय की खोय।
हरि
चरना चित राखिये, तो अमरापुर जोय॥
माला
फ़ेरै कछु नहीं, काती मन के हाथ।
जब लग
हरि परसै नहीं, तब लग थोथी बात॥
ज्ञान
संपुरन ना बिधा, हिरदा नहि भिदाय।
देखा
देखी पकरिया, रंग नही ठहराय।
बाना
पहिरै सिंघ का, चले भेङ की चाल।
बोली
बोले सियार की, कुत्ता खावै फ़ाल॥
भरम न
भागै जीव का, बहुतक धरिया भेष।
सतगुरू
मिलिया बाहिरै, अन्तर रहा अलेख॥
तन को
जोगी सब करै, मन को करै न कोय।
सहजै
सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय॥
हम तो
जोगी मनहि के, तन के हैं ते और।
मन को
जोग लगावतां, दसा भई कछु और॥
पहिले
बूङी पिरथवी, झूठे कुल की लार।
अलख
बिसार्यो भेष में, बूङि काल की धार॥
चतुराई
हरि ना मिलै, यह बातों की बात।
निस्प्रेही
निरधार का, गाहक दीनानाथ॥
जप
माला छापा तिलक, सरै न एकौ काम।
मन
काचे नाचे व्रिथा, सांचे सांचे राम॥
हम
जाना तुम मगन हो, रहै प्रेमरस पाग।
रंच
पौन के लागते, उठै आग से जाग॥
सीतल
जल पाताल का, साठि हाथ पर मेख।
माला
के परताप ते, ऊपर आया देख॥
करिये
तो करि जानिये, सरिखा सेती संग।
झिर
झिर जिमि लोई भई, तऊ न छाङै रंग॥
संसारी
साकट भला, कन्या क्वारी माय।
साधु
दुराचारी बुरा, हरिजन तहाँ न जाय॥
वैरागी
विरकत भला, गिरा पङा फ़ल खाय।
सरिता
को पानी पिये, गिरही द्वार न जाय॥
गिरही
द्वारै जाय के, उदर समाता लेय।
पीछे
लागे हरि फ़िरै, जब चाहै तब देय॥
सिष
साखा संसार गति, सेवक परतछ काल।
वैरागी
छावै मढ़ी, ताको मूल न डाल॥
जो
मानुष गृहि धर्मयुत, राखै सील विचार।
गुरूमुख
बानी साधु संग, मन वच सेवा सार॥
सेवक
भाव सदा रहै, वहम न आनै चित्त।
निरनै
लखी यथार्थ विधि, साधुन को करै मित्त॥
सत्त
सील दाया सहित, बरते जग व्यौहार।
गुरू
साधू का आश्रित, दीन वचन उच्चार॥
बहु
संग्रह विषयान को, चित्त न आवै ताहि।
मधुकर
इमि सब जगत जिव, घटि बढ़ि लखि बरताहि।
गिरही
सेवै साधु को, साधू सुमरै नाम।
यामें
धोखा कछु नहीं, सरै दोउ का काम॥
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