रमैनी 51
जाकर नाम अकहुबा रे भाई, ताकर काह रमैनी गाई ।
कहत तात्पर्य एक ऐसा, जस पंथी बोहित चढि वैसा ।
है कछु रहनि गहनि की बाता, बैठा रहै चला पुनि जाता ।
रहै वदन नहि स्वांग सुभाऊ, मन स्थिर नहिं बोलै काऊ ।
तन राता मन जात है, मन राता तन जाय ।
तन मन एकै होए रहै, तब हंस कबीर कहाय ।
रमैनी 52
जेहि कारन सिव अजहुँ बियोगी, अंग बिभूत लाय भै योगी ।
सेस सहस मुख पार न पावै, सो अब खसम सहित समुझावै ।
ऐसी विधि जो मोकँह ध्यावै, छठये माह सो दर्सन पावै?
कौनेहु भाँति दिखाई देहों, गुप्तहिं रहो सुभाव सब लेहों
।
कहँहिं कबीर पुकारि के, सबका उहै विचार ।
कहा हमार मानै नहीं, किमि छूटै भ्रम जार ।
रमैनी 53
महादेव मुनि अंत न पाया, उमा सहित उन जन्म गवाँया
।
उनहूं ते सिध साधक होई, मन निश्चय कहु कैसे कोई ।
जब लगि तन में आहै सोई, तब लगि चेत न देखै कोई?
तब चेतिहौ जब तजिहौ प्राना, भया अन्त तब मन पछिताना?
इतना सुनति निकट चलि आई, मन के बिकार न छूटा भाई ।
तीन लोक मुवाबउ आय के, छूटी न काहु कि आस ।
एक अँधरे जग खाइया, सब का भया निपात ।
रमैनी 54
मरिगे ब्रह्मा काशी के बासी, शिव सहित मुये अबिनासी ।
मथुरा मरिगे कृष्ण गुवारा, मरि मरि गये दसौ अवतारा ।
मरि मरि गये भक्ति जिन ठानी, सगुन माहि निर्गुन जिन्ह
आनी ।
नाथ मुछंदर बांचे नहीं, गोरख दत्ता व्यास ।
कहँहिं कबीर पुकारि के, सब परे काल के फांस ।
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