शब्द 13
राम तेरी माया दुंद बजावै ।
गति मति समुझ परी नहिं, सुर नर मुनिहि नचावै ।
क्या सेमर तेरि साषा बढाये, फूल अनूपम बानी ।
केतिक चातृक लागि रहे हैं, देषत रुवा उडानी ।
काह षजूर बडाई तेरो, फल कोई न पावै ।
ग्रीसम ऋतु जब आनि तुलानी, छाया काम न आवै ।
अपना चतुर और को सिषवै, कनक कामिनी स्यानी ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, राम चरन रितु मानी ।
शब्द 14
रामुरा संसै गांठि ना छूटै, ताते पकरि जम लूटै ।
होय कुलीन मिस्कीन कहावै, तूँ योगी सन्यासी ।
ग्यानी गुनी सूर कवि दाता, ये मति किनहु न नासी ।
स्मृति बेद पुरान पडै सब, अनुभव भाव न दरसै ।
लोह हिरन्य होय धौं कैसे, जो नहिं पारस परसै ।
जियत न तरेउ मुये का तरिहो, जियतहि नाहिं तरै ।
गही परतीत कीन्ह जिन्ह जासों, सोई तहां अमरै ।
जो कछु कियो ग्यान अग्यान, सोई समुझ सयाना ।
कहै कबीर तासो क्या कहिये, जो देषत दृष्टि भुलाना ।
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