अथ पांचवां बसन्त
तुम बूझहु पण्डित कौन नारि । कोइ नाहिं
बिआहल रहल कुमारि ॥
यहि सब देवन मिलि हरिहि दीन्ह । तेहि
चारिहु युग हरि संग लीन्ह ॥
यह प्रथमहि पदमिनि रूप आय । है सांपिनि
सब जग खेदि खाय ॥
या वर युवती वे वारनाह, अति तेज तिया है रैनि
ताहि ।
कह कबीर सब जग पियार, यह अपने बल कबै रहल मारि
॥
अथ छठवां बसन्त
माई मोर मनुष है अति सुजान, धंधा कुटि कुटि करै
बिहान ।
बङे भोर उठि अंगन बुहार, बङी खांच लै गोबर डार ॥
बासी भात मनुष ल खाय, बङ घैला लै पानी जाय ।
अपने सैंयां बांधी पाट, लैरे बेंचौं हाटै हाट ॥
कह कबीर ये हरि के काज, जोइ याके ढीम्गर कौन है
लाज ।
अथ सातवां बसन्त
घर ही में बाबुल बढ़ी रारि, अंग उठि उठि लागै चपल
नारि ।
वह बङी एक जेहि पांच हाथ, तेहि पचहुन के पच्चीस
साथ ॥
पच्चीस बतावें और और, वे और बतावें कई ठौर ।
सो अंतर मध्ये अंत लेइ,
झकझेलि झुलावै जीव देह ॥
सब आपन आपन चहैं भोग, कहु कैसे परिहै कुशल योग
।
विवेक विचार न करै कोइ, सब खलक तमाशा देख सोइ ॥
मुख फ़ारि हँसैं सब राव रंक, तेहि धरै न पैहौ एक अंक
।
नियरे बतावैं खोजैं दूरि, वह चहुँदिश बागुरि रहल
पूरि ॥
है लक्ष अहेरी एक जीउ, ताते पुकारै पीउ पीउ ।
अबकी बारै जो होय चुकाव, ताकी कबीर कह पूरि दाव ॥
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