अथ ग्यारहवां कहरा
ननदी गे तै विषम सोहागिनि, तैं निदले संसारा गे ।
आवत देखि एक संग सूती, तैं अरु खसम हमारा गे ॥
मोरे बाप कि दोय मेहरिया, मैं अरु मोर जिठानी गे ।
जब हम ऐलि रसिक के जग में, तबहिं बात जग जानी गे ॥
माई मोर मुवल पिता के संगहि, सर रचि मुवल संघाता गे ।
अपनो मुई और ले मुवली, लोग कुटुम्ब संग साथा गे
॥
जौ लौं सांस रहै घट भीतर, तौ लग कुशल परैहै गे ।
कह कबीर जब स्वांस निसरि गै, मन्दिर अनल जरैहै गे ॥
अथ बारहवां कहरा
या माया रघुनाथ की बौरी खेलन चली अहेरा
हो ।
चतुर चिकनिया चुनि चुनि मारै, काहु न राखै नेरा हो ॥
मौनी वीर दिगम्बर मारे, ध्यान धरंते योगी हो ।
जंगल में के जंगम मारे, माया किनहू न भोगी हो ।
वेद पढ़ंता पांडे मारे, पूजा करते स्वामी हो ।
अर्थ विचारे पंडित मारे, बांध्यो सकल लगामी हो ॥
श्रंगी ऋषि वन भीतर मारे, शिर ब्रह्मा के फ़ोरी हो
।
नाथ मछंदर चले पीठ दै, सिंह लहू में वौरी हो ॥
साकठ के घर कर्ता धर्ता, हरि भक्तन की चेरी हो ।
कहै कबीर सुनो हो संतो, ज्यों आवै त्यों फ़ेरी हो
॥
इति कहरा सम्पूर्ण
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