शब्द 82
तुम एहि बिधि समुझो लोई, गोरी मुष मंदिर बाजै ।
एक सगुन षटचक्रहि बेधँ, बिन बृष कोल्हू माचै ।
ब्रह्महि पकरि अग्नि मा होमै, मच्छ गगन चढि गाजा ।
नित्त अमावस नित्त ग्रहनत्र, राहु ग्रास नित दीजै ।
सुर भी भच्छन करत बेद मुष, घन बरिसैं तन छीजै ।
त्रिकुटि कुंडल मधे मंदिर बाजै, औघट अंमर छीजै ।
पुहुमी का पनिया अंमर भरिया, ई अचरज को बूझै ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, योगिन सिद्धि पियारी ।
सदा रहै सुष संजम अपनी, बसुधा आदि कुमारी ।
शब्द 83
भूला वे अहमक नादाना, जिन्ह हरदम रामहिं ना जाना ।
बरबस आनि कै गाय पछारिन, गला काटि जिव आप लिआ ।
जिआ जीव मुर्दा करि डारा, तिस कझ कहत हलाल हुआ ।
जाहि मासु को पाक कहत हो, ताकी उत्पति सुन भाई ।
रज बीज से माँस उपाने, माँस न पाक जो तुम षाई ।
अपना दोस कहत नहिं अहमक, कहत हमारे बडन किया ।
उसकी षून तुम्हारी गर्दन, जिन्ह तुमको उपदेस दिया ।
स्याही गई सपेदी आई, दिल सपेद अहूँ न हुआ ।
रोजा बाँग निमाज क्या कीजे, हुजरे भीतर पैठि मुआ ।
पंडित बेद पुरान पढे सब, मुल्ला पढै कुराना ।
कहैं कबीर
दोउ गए नरक में, जिन्ह हरदम रामहिं ना जाना
शब्द 84
काजी तुम कौन किताब बषानी ।
झंषत बक्त रहो निसि बासर मति एकौ नहिं जानी ।
सक्ति अनुमाने सुनत करत हौं मैं न बदोंगा भाई ।
जो षोदाय तेरा सुनति करत है आपहि काटि न आई ।
सुनति कराय तुर्क जो होना औरत को क्या कहिये ।
अर्ध सरीरी नारि बषानी ताते हिंदुइनि रहिये ।
पहिर जनेउ जो ब्राह्मन होना मेहरि क्या पहिराया ।
कीय जन्म की सुद्रिन परसै तुम पांडे क्यों षाया ।
हिंदू तुर्क कहां ते आया किन्ह यह राह चलाई ।
दिल में षोज देष षुजादे भिस्त कहां से आई ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो जोर करतु है भाई ।
कबिर न ओट राम की पकरी अंत चले पछहारी ।
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