विप्रमतीसी प्रारम्भः
सुनहु सबन मिलि विप्र मतीसी, हरि बिनु बूङी नाव भरी
सी ।
ब्राह्मणा है कै ब्रह्म न जानैं, घर में यज्ञ प्रतिग्रह
आनैं ॥
जे सिरजा तेहि नहिं पहिचानैं, कर्म भर्म लै बैठि
बखानैं ।
ग्रहण अमावस सायर पूजा, स्वाती के पात परहु जनि
दूजा ॥
प्रेत कर्म मुख अंतर वासा, आहुति सहित होम की आसा ।
कुल उत्तम कुल माँह कहावैं, फ़िरि फ़िरि मध्यम कर्म
करावैं ॥
कर्म अशुचि उच्छिष्टै खाहीं, मति भरिष्ट यम लोकहि
जाहीं ।
सुत दारा मिलि जूठो खाहीं, हरि भगतन की छूत कराहीं
॥
न्हाय खोरि उत्तम ह्वै आवैं, विष्णु भक्त देखे दुख
पावैं ।
स्वारथ ला गिरहे वे आढ़ा, नाम लेत जस पावक डाढ़ा ॥
राम कृष्ण की छोङिनि आसा, पढ़ि गुणि भये कृतिम के
दासा ।
कर्म करहिं कर्महि को धावैं, जो पूछे तेहि कर्म
दृढ़ावैं ॥
निष्कर्मी कै निन्दा कीजै, करै कर्म ताही चित दीजै
।
अस भगती भगवत की लावैं, हरिणाकुश को पन्थ चलावैं
॥
देखहु कुमति नरक परगासा, बिनु लखि अंतर किरतम
दासा ।
जाके पूजे पाप न ऊङै, नाम सुमिरते भव में बूङे
॥
पाप पुण्य कै हाथहि पासा, मारि जगत को कीन्ह
बिनासा ।
ये बहनी दोऊ बहनि न छांङै, यह ग्रह जारैं वह ग्रह
मांङै ॥
बैठे ते घर साहु कहावै, भितर भेद मन मुसहि लगावै
।
ऐसी विधि सुर विप्र भनी जै, नाम लेत पंचासन दीजै ॥
ऊँच नीच कहु काहि जो हारा, बूङि गये नहिं आपु
संभारा ।
ऊँच नीच है मध्यम बानी, एकै पवन एक है पानी ॥
एकै मटिया एक कुम्हारा, एक सबन का सिरजनहारा ।
एक चाक बहु चित्र बनाया, नाद बिंदु के बीच समाया
॥
व्यापी एक सकल की ज्योती, नाम धरै क्या कहिये मोती
।
राक्षस करणी देव कहावै, वाद करै भव पार न पावै ॥
हंस देह तजि न्यारा होई, ताकी जाति कहै धौं कोई ।
श्याम सुपेद कि राता पियरा, अवरण वरण कि ताता सियरा
॥
हिन्दू तुरक कि बूढ़ा बारा, नारि पुरुष मिलि करौ
विचारा ।
कहिये काहि कहा नहिं माना, दास कबीर सोई पहिचाना ॥
साखी
वहा अहै बहि जातु है, कर गहि ऐंचहु ठौर ।
समुझाये समुझै नहीं, दे धक्का दुइ और ॥
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