अथ ग्यारहवां बसन्त
शिव कासी कैसी भै तुम्हारि, अजहूं हो शिव देखहु
विचारि ।
चोवा अरु चन्दन अगर पान, सब घर घर स्मृति होइ
पुरान ॥
बहुविधि भवनन में लगैं भोग, अस नगर कोलाहल करत लोग ।
बहुविधि पर जानि निर्भय हैं तोर, तेहि कारण चित है ढीठ
मोर ॥
हमरै बालक कर यहै ज्ञान, तो ही हरि को समुझवै आन
।
जग जो जेहि सो मन रहल लाय, सो जिव के मरे कहु कहँ
समाय ॥
तहँ जो कछु जाकर होय अकाज, है ताहि दोष नहिं साहब लाज ।
तहँ जो कछु जाकर होय अकाज, है ताहि दोष नहिं साहब लाज ।
तब हर हर्षित सो कहल भेव, जहँ हमही हैं तहँ दुसर
केव ॥
तुम दिना चारि मन धरहु धीर, पुनि जस देखहु तस कह
कबीर ।
अथ बारहवां बसन्त
हमरे कहल कर नहिं पतियार, आपु बूङे नर सलिलै धार ।
अंधा कहै अंध पतिआय, जस विश्वा के लगनै जाय ॥
सो तो कहिये अतिहि अबूझ, खसम ठाढ़ ढिग नाहीं सूझ ।
आपन आपन चाहहिं मान, झूठ परपंच सांच कै जान ॥
झूठा कबहूं करौ नहि काज, मैं तोहि बरजौं सुनु
निरलाज ।
छाङहु पाखंड मानहुं बात, नहिं तौ परिहौ यम के हाथ
॥
कह कबीर नर चले न सोझ, भटकि मुए जस वन के रोझ ।
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