शब्द 101
देषि देषि जिय अचरज होई, यह पद बूझै बिरला कोई ।
धरती उलटि अकासै जाई, चिउँटी के मुष हस्ति समाई ।
बिना पवन जहँ पर्वत उडै, जीव जन्तु सब वृक्षा चढै ।
सूषे सरवर उठै हिलोर, बिनु जल चकवा करत कलोर ।
बैठा पंडित पढै पुरान, बिनु देषे का करत बषान ।
कहैँ कबीर यह पद को जान, सोई संत सदा परमान ।
शब्द 102
हो द्वारिका ले देउँ तोहि गारी तैं समुझि सुपंथ बिचारी ।
घरहू नाह जो अपना तिनहू से भोंट न सपना ।
ब्राह्मन ओ क्षत्री बानी सो तिनहू कलह नहिं मानी ।
जोगी ओ जंगम जेते वे आपु गये हैं तेते ।
कहैं कबीर एक जोगी वे तो बरमि भरमि भौ भोगी ।
शब्द 103
लोगा तुमहीं मति के भोरा ।
ज्यों पानी पानी मिलि गयऊ त्यों धुरि मिले कबीरा ।
जो मैथिल को साचा ब्यास तोर मरन मगहर पास ।
मगहर मरै मरन नहिं पावै अन्तै मरै तो राम ले जावै ।
मगहर मरै सो गदहा होय भल परतीत राम से षोय ।
क्या कासी क्या मगहर ऊसर जो पै हृदय राम बस मोर ।
जो कासी तन तजै कबीर तो रामहि कहु कौन निहोर ।
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