अथ तीसरा हिंडोला
जहँ लोभ मोह के खम्भ दोऊ, मन रच्यो हौ हिंडोर ।
तहँ झुलहिं जीव जहान, जहँ लगि कतहुँ नहिं थिति
ठोर ।
चतुरा झुलैं चतुराइया, औ झूलैं राजा सेव ।
अरु चन्द्र सूरज दोऊ झूलहिं, नाहिं पायो भेव ॥
चौरासि लक्षहु जीव झूलैं, धरहिं रविसुत धाय ।
कोटिन कलप युग बीतिया, मानै न अजहूं हाय ॥
धरणी अकाशहु दोऊ झूलैं, झुलैं पवनहुँ नीर ।
धरि देह हरि आपहू झूलहिं, लखहिं हंस कबीर ॥
साखी
प्रारम्भ
जहिया जन्म मुक्ता हता, तहिया हता न कोय ।
छठी तुम्हारी हौं जगा, तू कहँ चला बिगोय ।
सब्द हमार तू सब्द का, सुनि मति जाहु सरक ।
जो चाहो निज तत्व को, तो सब्दहि लेहु परष ।
सब्द हमारा आदि का, सब्दै पैठा जीव ।
फूल रहन की टोकरी, घोडे षाया घीव ।
सब्द बिना सुरति आंधरी, कहो कहाँ को जाय ।
द्वार न पावै सब्द का, फिर फिर भटका षाय ।
सब्द सब्द बहु अन्तरे, सार सब्द मथि लीजै ।
कहैं कबीर जहँ सार सब्द नहिं, धृग जीवन सो जीजै ।
सब्दै मारा गिर परा, सब्दै छोडा राज ।
जिन जिन सब्द बिवेकिया, तिनका सरिगो काज ।
सब्द हमारा आदि का, पल पल करहू याद ।
अन्त फलेगी माहली, ऊपर की सब बाद ।
जिन जिन संमल ना कियो, अस पुरपाटन पाय ।
झालि परे दिन आथये, संमल कियो न जाय ।
यहाँई संमल लेहुकर, आगे बिषमी बाट ।
स्वर्ग विसाहन सब चले, जहँ बनियाँ नहिं हाट ।
जो जानहु जिव आपना, करहु जीव को सार ।
जियरा ऐसा पाहुना, मिलै न दूजी बार ।
जो जानहु जग जीवना, जो जानहु सो जीव ।
पानी पचवहु आपना, पानी माँगि न पीव ।
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