शब्द 91
तन धरि सुषिया काहु न देषा जो देषा सो दुषिया ।
उदय अस्त की बात कहत हौं सब का किया बिबेका ।
बाटे बाटे सब कोइ दुषिया क्या गिरही बैरागी ।
सुकाचार्य दुष ही के कारन गर्भहि माया त्यागी ।
जोगी जंगम ते अति दुषिया तापस के दुष दूना ।
आसा तृसना सब घट ब्यापै कोई महल नहिं सूना ।
सांच कहों तो सब जग षीजै झूठ कहा नहिं जाई ।
कहै कबीर तेई भये दुषिया जिन यह राह चलाई ।
शब्द 92
ता मन को चीन्हो मोरे भाई । तन छूटे मन कहाँ समाई ।
सनक सनंदन जयदेव नामा । भक्ति हेतु मन उनहुं न जाना ।
अम्बरीष प्रहलाद सुदामा । भक्ति सहित मन उनहुं न जाना ।
भरथरि गोरष गोपी चंदा । ता मन मिलि मिलि कियो अनंदा ।
जा मन को कोइ जानु न भेवा । तन मन मगन भये सुकदेवा ।
सिव सनकादिक नारद सेसा । तन के भीतर मन उनहुं न पेषा ।
एकल निरंजन सकल सरीरा । तामें भ्रमि भ्रमि रहल कबीरा ।
शब्द 93
बाबू ऐसा है संसार तिहारो ई है कलि ब्यौहारो ।
को अब अनष सहत प्रतिदिन को नाहिन रहनि हमारो ।
स्मृति स्वभाव सबै कोइ जानै हृदया तत्त्व न बूझै ।
निरजिव आगे सरजिव थापै लोचन कछू न सूझै ।
तजि अमृत बिष काहे को अचवै गांठी बांधिन षोटा ।
चोरन दीन्हा पाट सिंहासन साहुन से भयो ओटा ।
कहैं कबीर झूठे मिलि झूठा ठगही ठग ब्यौहारा ।
तीन लोक भरपूर रहो है नाहिन है पतियारा ।
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