अथ तीसरा बसन्त
मैं आयउँ मेह तर मिलन तोहि, अब ऋतु बसन्त पहिराउ
मोहि ।
है लंबी पुरिया पाइ झीन, तेहि सूत पुरा ता खूंटा
तीन ॥
शर लागे सै तीनि साठ, तहँ कसन बहत्तर लागि
गांठि ।
खुर खुर चलै नारि, वह बैठि जोलाहिन पलथि मारि
॥
सो करिगह में दुइ चलहिं गोङ, ऊपर नचनी नचि करै कोङ ।
है पांच पचीसौ दशहु द्वार, सखी पांच तहँ रची धमार ॥
वे रंग बिरंगी पहिरैं चीर, धरि हरि के चरण गावै
कबीर ।
अथ चौथा बसंत
बुढ़िया हँसि कह मैं नितहि वारि, मोहि ऐसि तरुणि कहु कौन
नारि ।
ये दांत गये मोर पान खात, औ केश गयल मोर गंग नहात
।
औ नयन गये मोरे कजल देत, अरु बैस गयल पर पुरुष
लेत ॥
औ जान पुरुष वा मोर अहार, मैं अनजाने को कर
श्रंगार ।
कह कबीर बुढ़िया आनन्द गाय, पूत भतारहि बैठी खाय ॥
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