शब्द 66
जोगिया के नगर बसो मत कोई, जो रे बसै सो जोगिया होई ।
ये जोगिया के उलटा ग्याना, कारा चोला नाहीं म्याना ।
प्रगट सो कंथा गुप्ता धारी, तामें मूल सजीवन भारी ।
वो जोगिया की जुक्ति जो बूझै, राम रमै तेहि त्रिभुवन सूझै ।
अमृत बेली छिन छिन पीवै, कहें कबीर जुग जुग जीवै ।
शब्द 67
जो पै बीज रूप भगवाना । तो पंडित का पूछौ आना ।
कहैं मन कहै बुद्धि हंकारा । सत रज तम गुन तीन प्रकारा ।
बिष अमृत फल फलै अनेका । बहुधा बेद कहै तरबेका ।
कहैं कबीर तैं मैं क्या जानो । को धौ छूटल को अरुझानो ।
शब्द 68
जो चरषा जरि जाय बढैया ना मरै ।
मै कातों सूत हजार चरषुला जिन जरै ।
बाबा ब्याह कराय दे अच्छा बरहि ताकहु ।
जौ लों अच्छा बर न मिलै तौ लों तूं ही ब्याहु ।
प्रथमै नगर पहुंच ते परिगौ सोक संताप ।
एक अचम्भौ हमने देषा जो बिटिया ब्याहल बाप ।
समधी क घर लमधी आये आये बहू के भाय ।
गोडे चूल्हा देहि दे चरषा दियो दृढाय ।
देव लोक मरि जायेंगे एक न मरै बढाय ।
यह मन रंजन कारने चरषा दियो दृढाय ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो चरषा लषै न कोय ।
जो यह चरषो लषि परे तो आवागमन न होय ।
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