शब्द 104
कैसे तरों नाथ कैसे तरों अब बहु कुटिल भरो ।
कैसी तेरी सेवा पूजा कैसो ध्यान । ऊपर उजर देषो बक अनुमान ।
भाव तो भुवँग देषो अति बिबिचारी । सुरति सचान तेरी मति तो मँजारी
।
अति रे बिरोध देषो अति रे सयाना । छव दरसन देषो भेष लपटाना ।
कहैं कबीर सुनो नर बन्दा डाइनि डिंभ सकल जग षंदा ।
शब्द 105
ये भ्रम भूत सकल जग षाया जिन जिन पूज तीन जहँडाया ।
अंड न पिंड प्रान नहिं देही काटि काटि जिब केतिक देही ।
बकरी मुगरी कीन्ह उछेवा अगिले जन्म उन औसर लेवा ।
कहैं कबीर सुनो नर लोई भुतवा के पूजे भुतवा होई ।
शब्द 106
भैंर उडे बक बैठे आय रैन गई दिवसो चलि जाय ।
हल हल कांपै बाला जीबे ना जानों का करि है पीव ।
काचे बासन टिकै न पानी उडिगै हंस काया कुम्हिलानी ।
काग उडावत भुजा पिरानी कहैं कबीर यह कथा सिरानी ।
शब्द 107
षसम बिनु तेली को बैल भयो ।
बैठत नहीं साधु की संगत नाधे जन्म गयो ।
बहि बहि मरहु पचहु निज स्वारथ जम के दंड सह्यो ।
धन दारा सुत राज काज हित माथे मार गह्यो ।
षसमहि छाडि विषय रंग राते पाप के बीज बयो ।
झूठ मुक्ति नर आस जिवन की प्रेत को जूठन षायो ।
लष चौरासी जीव जन्तु में सायर जात बह्यो ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो स्वान की पूंछ गह्यो ।
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