अथ दूसरा कहरा
मति सुनु माणिक मति सुनु मानीक, ह्रदया बंदि निवारौ हो ।
अटपट कुम्हरा करै कुम्हरिया, चमरा गाउ न बांचै हो ॥
नित उठि कोरिया वेट ह्बरतु है, छिपिया आंगन नाचै हो ।
नित उठ नौवा नाव चधअत है, बरही वेरा वारिउ हो ॥
राउर की कछु खबरि न जान्यो, कैसे झगर निवारिउ हो ।
एक गांव में पांच तरुणि बसैं, तिनमें जेठ जेठानी हो ॥
आपन आपन झगर पसारिनि, प्रिय सों प्रीति नशानी
हो ।
भैंसिन माहँ रहत नित बकुला, तकुला ताकि न लीन्हा हो
॥
गाइन माहँ बसेउं नहिं कबहूं, कैसे कै पद चीन्हा हो ।
पथिका पंथ बूझि नहिं लीन्हो, मूढ़हि मूढ़ गवारा हो ॥
घाट छोङि कस औघट रेंगहु, कैसे लगबेहु पारा हो ।
जत इतके धन हेरिन ललइच, कोदइत के मन दोरा हो ॥
दुइ चकरी जिन दरन पसारिहु, तब पैहौ ठिक ठौरा हो ।
प्रेम बान एक सतगुरु दीन्ह्यो, गाढ़ो तीर कमाना हो ॥
दास कबीर कियो यह कहरा, महरा माहि समाना हो ।
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