शनिवार, मई 01, 2010

पहिला दूसरा बसंत


अथ बसंत

पहिला बसंत

जहँ बारह मास बसंत होय, परमारथ बूझै बिरल कोय ।
जहँ वर्षै अग्नि अखंड धार, वन हरियर भो अठ्ठार भार ॥
पनिया अन्दर तेहि धरे न कोय, वह पवन गहे कशमल न धोय ।
बिनु तरुवर जहँ फ़ूलो अकाश, शिव औ विरंचि तहँ लेहि वास ॥
सनकादिक भूले भंवर भोय, तहँ लख चौरासी जीव जोय ।
तोहि जो सतगुरु सत सो लखाव, तुम तासु न छाङहु चरण भाव ॥
वह अमरलोक फ़ल लगे चाय, यह हक कबीर बूझै सो खाय ।

अथ दूसरा बसंत

रसना पढ़ि भूले श्री बसंत, पुनि जाइ परिहौ तुम यम के अंत ।
जो मेरुदण्ड पर डंक दीन्ह, सो अष्ट कमल पर जारि लीन्ह ॥
तब ब्रह्म अग्नि कीन्हो प्रकास, तहँ अर्द्ध ऊर्ध्व बहती बतास ।
तहँ नव नारी परिमल सो गांव, मिलि सखी पांच तहँ देखन जावं ॥
अहँ अनहद बाजार रहल पूर, तहँ पुरुष बहत्तर खेलैं धूर ।
तैं माया देखि कस रहसि भूलि, जस वनस्पति वन रहल फ़ूल ॥
यह कह कबीर ये हरि के दास, फ़गुवा मांगै बैकुंठ वास ।


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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।