अथ बसंत
पहिला बसंत
जहँ बारह मास बसंत होय, परमारथ बूझै बिरल कोय ।
जहँ वर्षै अग्नि अखंड धार, वन हरियर भो अठ्ठार भार
॥
पनिया अन्दर तेहि धरे न कोय, वह पवन गहे कशमल न धोय ।
बिनु तरुवर जहँ फ़ूलो अकाश, शिव औ विरंचि तहँ लेहि
वास ॥
सनकादिक भूले भंवर भोय, तहँ लख चौरासी जीव जोय ।
तोहि जो सतगुरु सत सो लखाव, तुम तासु न छाङहु चरण
भाव ॥
वह अमरलोक फ़ल लगे चाय, यह हक कबीर बूझै सो खाय
।
अथ दूसरा बसंत
रसना पढ़ि भूले श्री बसंत, पुनि जाइ परिहौ तुम यम
के अंत ।
जो मेरुदण्ड पर डंक दीन्ह, सो अष्ट कमल पर जारि
लीन्ह ॥
तब ब्रह्म अग्नि कीन्हो प्रकास, तहँ अर्द्ध ऊर्ध्व बहती
बतास ।
तहँ नव नारी परिमल सो गांव, मिलि सखी पांच तहँ देखन
जावं ॥
अहँ अनहद बाजार रहल पूर, तहँ पुरुष बहत्तर खेलैं
धूर ।
तैं माया देखि कस रहसि भूलि, जस वनस्पति वन रहल फ़ूल ॥
यह कह कबीर ये हरि के दास, फ़गुवा मांगै बैकुंठ वास
।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें