रमैनी 13
नहीं प्रतीत जो यह संसारा, द्रव्य के चोट कठिन कै मारा
।
सो तो सेखै जाइ लुकाई, काहु के प्रतीति न आई ।
चलै लोग सब मूल गंवाई, जम की बाढि काटि नहिं जाई
।
आजु काज पर काल अकाजा, चले लादि दिग अंतर राजा ।
सहज विचारत मूल गंवाई, लाभ ते हानि होय रे भाई?
ओछी मती चन्द्र गो अथई, त्रिकुटी संगम स्वामी बसई
।
तबही विष्णु कहा समुझाई, मैथुन अस्ट तुम जीतहु जाई?
तब सनकादिक तत्व विचारा, ज्यों धन पावहि रंक अपारा
।
भो मर्याद बहुत सुख लागा, एहि लेखे सब संसय भागा ।
देखत उत्पति लागु न बारा, एक मरै एक करै बिचारा ।
मुए गए की काहु न कही, झूठी आस लागि जग रही?
जरत जरत तें बाचहू, काहे न करहु गोहार ।
विष विषया कै खायहु, रात दिवस मिल झार ।
रमैनी 14
बड सो पापी आहि गुमानी, पाखंड रूप छलेउ नर जानी ।
बावन रूप छलेउ बलि राजा, ब्राह्मन कीन्ह कौन को काजा
।
ब्राह्मन ही सब कीन्हा चोरी, ब्राह्मन ही की लागल खोरी
।
ब्राह्मन कीन्हों वेद पुराना, कैसेहु के मोहि मानुष जाना
।
एक से ब्रह्मै पंथ चलाया, एक से हंस गोपालहि गाया ।
एक से शम्भू पथ चलाया, एक से भूत प्रेत मन लाया
।
एक से पूजा जैन बिचारा, एक से निहुरि निमाज गुजारा
।
कोई काम का हटा न माना, झूठा खसम कबीर न जाना?
तन मन भजि रहु मोरे भक्ता, सत्य कबीर सत्य है वक्ता
।
आपहु देव आपु ही पाती, आपुहि कुल आपुहि है जाती?
सर्व भूत संसार निवासी, आपुहि खसम आपु सुखरासी ।
कहते मोहि भए युग चारी, काके आगे कहौं पुकारी?
साँचहि कोई न मानई, झूठहि के संग जाए ।
झूठहि झूठा मिलि रहा, अहमक खेहा खाए ।
रमैनी 15
उनही बदरिया परि गै साँझा, अगुवा भूला बन खंड माँझा
।
पिया अंते धन अंते रहई, चौपरि कामरि माथे गहई ।
फुलवा भार न लै सकै, कहै सखिन सो रोए ।
ज्यों ज्यों भीजै कामरी, त्यों त्यों भारी होए ।
रमैनी 16
चलत चलत अति चरण पिराना, हारि परै तहँ अति खिसियाना?
गण गंधर्व मुनि अंत न पाया, हरि अलोप जग धंधे लाया ।
गहनी बंधन बाँध न सूझा, थाकि परे तहाँ कछू न बूझा
।
भूलि परे जिए अधिक डेराई, रजनी अंध कूप हो आई ।
माया मोह वहां भरपूरी, दादुर दामिन पवनहि पूरी ।
बरसै तपै अखंडित धारा, रैन भयावनि कछु न अधारा ।
सभै लोग जहँडाइया, अंधा सबै भुलान ।
कहा कोइ नहिं मानहीं, एकै माहिं समान ।
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