रमैनी 24
चन्द्र चकोर अस बात जनाई, मानुष बुद्धि दीन्ह पलटाई
।
चारि अवस्था सपनेहु कहई, झूठो फूरो जानत रहई?
मिथ्या बात न जानै कोई, यहि बिधि सब ही गेल बिगोई
।
आगे दे दे सबन गंवाया, मानुष बुधि सपनेहु नहिं आया
।
चौंतिस अक्षर से निकलै जोई, पाप पुन्य जानेगा सोई?
सोइ कहते सोइ होहुगे, निकरि न बाहर आव ।
होइ जुग ठाढ़े कहत हौं, ते धोखे न जन्म गँवाव ।
रमैनी 25
चौंतिस अक्षर का यही बिसेखा, सहस्रों नाम याहि में देखा
।
भूलि भटकि नर फिर घट आया, हो अजान फिर सबहि गँवाया
।
खोजहिं ब्रह्मा विस्नु सिव सक्ती, अमित लोक खोजहिं बहु भक्ती
।
खोजहि गन गंधर्ब मुनि देवा, अनँत लोक खोजहि बहु भेवा
।
जती सती सब खोजहीं, मनहि न मानैं हारि ।
बड बड जीव न बाचहीं, कहहिं कबीर पुकारि ।
रमैनी 26
आपुहि कर्ता भये कुलाला, बहु विधि बासन गढे कुम्हारा
।
बिधि ने सबै कीन्ह एक ठाऊँ, बहुत यतन कै बनयो नाऊँ ।
जठर अग्नि में दीन्ह प्रजाली, तामें आपु भये प्रतिपाली
।
बहुत जतन कै बाहर आया, तब सिव सक्ती नाम धराया ।
घर का सुत जो होय अयाना, ताके संग न जाहु सयाना?
साँची बात कहौं मैं अपनी, भयो दिवाना और कि सपनी?
गुप्त प्रगट है एकै दूधा, काको कहिये ब्राह्मण शुद्रा
।
झूठ गर्भ भूलो मति कोई, हिन्दू तुर्क झूठ कुल दोई
।
जिन यह चित्र बनाइया, साँचा सूतरधार ।
कहहिं कबीर ते जन भले, जो चित्रहिं लेहि निहार ।
रमैनी 27
ब्रह्मा को दीन्हो ब्रह्मंडा, सप्त दीप पुहुमी नव खंडा
।
सत्य सत्य कहि विष्णु दृढाई, तीन लोक में राखिनि जाई ।
लिंग रूप तब शंकर कीन्हा, धरती कीलि रसातल दीन्हा?
तब अष्टंगी रचो कुमारी, तीनि लोक मोहा सब झारी ।
दुतिया नाम पार्वती भयऊ, तप करते शंकर को दयऊ ।
एकै पुरुष एकै है नारी, ताते रची खानि भौ चारी?
सर्बन बर्बन देव औ दासा, रज सत तम गुण धरति अकासा
।
एक अंड ओंकार ते, सभ जग भया पसार ।
कहहिं कबीर सब नारी राम की, अविचल पुरुष भतार ।
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