शब्द
प्रथमै
समरथ आपु रह, दूजा रहा न कोय ।
दूजा
केहि विधि उपजा, पूछत हौं गुरु सोय ।1।
तब
सतगुरु मुख बोलिया, सुकिरित सुनो सुजान ।
आदि
अन्त की पारचै, तोसो कहौं बखान ।2।
प्रथम
सुरति समरथ कियो, घट में सहज उचार ।
ताते
जामन दीनियां, सात करी विस्तार ।3।
दूजे
घट इच्छा भई, चित मनसा को कीन्ह ।
सात
रूप निरमाईया, अविगत काहु ना चीन्ह ।4।
तब
समरथ के श्रवण ते, मूल सुरति भयो सार ।
शब्द
कला ताते भई, पाँच ब्रह्म अनुसार ।5।
पाँचों
पाँच खण्ड धरि, एक एकमा कीन्ह ।
दुइ
इच्छा तहाँ गुप्त हैं, सो सुकिरित चित चीन्ह ।6।
योगमया
एकु कारनो, ऊधो अक्षर कीन्ह ।
था
अविगत समरथ करी, ताहि गुप्त करि दीन्ह ।7।
स्वासा
सोहं ऊपजै, कीन्ह अमी बंधान ।
आठ अंस
निरमाईया, चीन्हौ सन्त सुजान ।8।
तेज
अंड आचिन्त का, दीन्हों सकल पसार ।
अंउ
सिखा पर बैठि के, अधर दीप निरधार ।9।
ते
अचिन्त के प्रेम ते, उपजे अक्षर सार ।
चारि
अंस निरमाइया, चारि बेद विस्तार ।10।
तब
अक्षर का दीनियां, नींद मोह अलसान ।
वे
समरथ अविगत करी, मर्म कोइ नहि जान ।11।
जब
अक्षर के नींद गै, दबी सुरति निरबान ।
स्याम
बरन यक अंड है, सो जल में उतरान ।12।
अक्षर
घट में ऊपजै, व्याकुल संसय सूल ।
किन
अंडा निरमाइया, कहा अंड का मूल ।13।
तेही
अंड के मुक्ख पर, लगी शब्द की छाप ।
अक्षर
दृष्टि से फ़ूटिया, दस द्वारे कढ़ि बाप ।14।
तेहिते
ज्योति निरंजनौ, प्रगटे रूप निधान ।
काल
अपरबल बीरमा, तीन लोक परधान ।15।
ताते
तीनों देव भै, ब्रह्मा बिस्नु महेस ।
चारि
खानि तिन सिरजिया, माया के उपदेस ।16।
चारि
बेद खट सास्त्रऊ, औ दस अष्ट पुरान ।
आशा है
जग बांधियां, तीनों लोक भुलान ।17।
लख
चौरासी धारमा, तहाँ जीव दिये वास ।
चौदह
यम रखबारिया, चारि बेद विस्वास ।18।
आप आप
सुख सब रमै, एक अंड के मांहि ।
उत्पत्ति
परलय दुख सुख, फ़िर आवहि फ़िर जाहिं ।19।
तेहि
पाछे हम आईया, सत्त शब्द के हेत ।
आदि
अन्त की उत्पती, तो तुमसो कहि देत ।20।
सात
सुरत सब मूल है, परलय इनही माहिं ।
इनहीं
मासे उपजै, इनही माहिं समाहिं ।21।
सोई
ख्याल समरत्थ उर, रहे सो अछ पछताइ ।
सोइ संधि
लै आईया, सोवत जगहि जगाय ।22।
सात
सुरति के बाहरे, सोरह संखि के पार ।
तहँ
समरथ का बैठका, हंसन करे अधार ।23।
घर घर
हम सबसों कही, सब्द न सुनै हमार ।
ते
भवसागर डूबहीं, लख चौरासी धार ।24।
मंगल
उतपति आदि का, सुनियो सन्त सुजान ।
कह
कबीर गुरु जागरत, समरथ का फ़रमान ।25।
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