रमैनी 17
जस जिव आपु मिलै अस कोई, बहुत धर्म सुख हृदया होई
।
जासों बात राम की कही, प्रीति ना काहू सों निर्वही
।
एकै भाव सकल जग देखी, बाहर परे सो होय बिबेकी ।
विषय मोह के फंद छोडाई, जहाँ जाय तहँ काटु कसाई ।
अहै कसाई छूरी हाथा, कैसेहु आवै काटौ माथा?
मानुस बडे बडे हो आए, एकै पंडित सबै पढाये ।
पढना पढौ धरौ जनि गोई, नहिं तो निश्चय जाहु बिगोई
।
सुमिरन करहु राम के, छाडहु दुख की आस ।
तर ऊपर धर चापि हैं, जस कोल्हु कोट पचास ।
रमैनी 18
अदभुद पंथ बरनि नहिं जाई, भूले राम भूलि दुनियाई ।
जो चेतहु तो चेत रे भाई, नहि तो जीवहि जम ले जाई?
सब्द न मान कथै बिग्याना, ताते यम दीन्हो है थाना?
संसय सावज बसै सरीरा, तिन्ह खायो अनबेधा हीरा ।
संसय सावज सरीर में, संगहि खेलै जुआरि ।
ऐसा घायल बापुरा, जीवन मारै झारि ।
रमैनी 19
अनहद अनुभव को करि आसा, देखहु यह विपरीत तमासा?
इहै तमासा देखहु भाई, जहवाँ सून्य तहाँ चलि जाई?
सून्यहि बासा सून्यहि गयऊ, हाथा छोडि बे हाथा भयऊ ।
संसय सावज सब संसारा, काल अहेरी साँझ सकारा?
सुमिरन करहु राम का, काल गहे है केस ।
ना जाने कब मारि है, क्या घर क्या परदेस ।
रमैनी 20
अब कहु राम नाम अविनासी, हरि छोडि जियरा कतहुँ न जासी
।
जहाँ जाहु तहँ होहु पतंगा, अब जनि जरहु समुझि विष संगा
।
राम नाम लौ लायसु लीन्हा, भृंगी कीट समुझि मन दीना
।
भौ अस गरुवा दुष की भारी, करु जिव जतन सु देखु विचारी
।
मन के बात है लहरि विकारा, तब नहिं सूझै वार न पारा
।
इच्छा के भवसागरे, वोहित राम अधार ।
कहि कबीर हरि सरण गहु, गौबछ खुर बिस्तार ।
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