॥सतपदी रमैणी॥
कहन सुनन कौ जिहि जग कीन्हा, जग भुलान सो किनहुँ न
चीन्हा ।
सत रज तम थें कीन्हीं माया, आपण माझै आप छिपाया ।
तुरक सरीअत जनिये, हिंदू बेद पुरान ।
मन समझन कै कारनै, कछु एक पढ़िये ज्ञान ।
सहजै राम नाम ल्यौ लाई, राम नाम कहि भगति दिढाई
।
राम नाम जाका मन माना, तिन तौ निज सरूप पहिचाना
।
निज सरूप निरंजना निराकार, अपरंपार अपार ।
राम नाम ल्यौ लाइस जिय, रे जिनि भूलै बिस्तार ।
करि बिस्तार जग धंधै लाया, अंत काया थैं पुरिष
उपाया ?
जिहि जैसी मनसा तिहि तैसा भावा, ताकूँ तैसा कीन्ह उपावा
।
ते तौ माया मोह भुलाना, खसम राम सो किनहूँ न
जाना ।
ता मुखि बिष आवै बिष जाई, ते बिष ही बिष में रहै
समाई ।
माता जगत भूत सुधि नांहीं, भ्रमि भूले नर आवैं
जाहीं ।
जानि बूझि चेते नहीं अंधा, करम जठर करम के फंधा ।
करम का बाँधा जीयरा, अहनिसि आवै जाइ ?
मनसा देही पाइ करि, हरि बिसरै तौ फिर पीछै
पछिताइ ।
तौ करि त्राहि चेति जा अंधा, तजि पर की रति भजि चरन
गोब्यंदा ।
उदर कूप तजौ ग्रभ बासा, रे जीव राम नाम अभ्यासा
।
जगि जीवन जैसे लहरि तरंगा ? खिन सुख कूँ भूलसि बहु
संगा ।
भगति कौ हीन जीवन कछू नांहीं, उतपति परलै बहुरि समाहीं
।
भगति हीन अस जीवना, जनम मरन बहु काल ।
आश्रम अनेक करसि रे जियरा, राम बिना कोइ न करै
प्रतिपाल ।
सोई उपाय करि यहु दुख जाई, ए सब परहरि बिसै सगाई ।
बिसै = विषय
माया मोह जरै जग आगी, ता संगि जरसि कवन रस
लागी ।
त्राहि त्राहि करि हरी पुकारा, साधु संगति मिलि करहु
बिचारा ।
रे रे जीवन नहीं बिश्रामा, सुख दुख खंउन राम को
नामा ।
राम नाम संसार में सारा, राम नाम भौ तारन हारा ।
सुम्रित बेद सबै सुनै, नहीं आवै कृत काज ।
नहीं जैसे कुंडिल बनित मुख, मुख सोभित बिन राज ।
अब गहि राम नाम अबिनासी, रि तजि जिनि कतहूँ कैं
जासी ।
जहाँ जाइ तहाँ तहाँ पतंगा, अब जिनि जरसि समझि बिष
संगा ।
चोखा राम नाम मनि लीन्हा, भिंग्री कीट भ्यंग नहीं
कीन्हा ?
भौसागर अति वार न पारा, ता तिरबे का करहु बिचारा
?
मनि भावै अति लहरि बिकारा, नहीं गमि सूझै वार न
पारा ।
भौसागर अथाह जल, तामैं बोहिथ राम अधार ।
कहै कबीर हम हरि सरन, तब गोपद खुद बिस्तार ।3।
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