॥बड़ी अष्टपदी रमैणी॥
एक बिनानी रच्या बिनान, सब अयान जो आपै जान ।
सत रज तम थें कीन्हीं माया, चारि खानि बिस्तार उपाया
।
पंच तत ले कीन्ह बंधान, पाप पुनि मान अभिमान ।
अहंकार कीन्हें माया मोहू, संपति बिपति दीन्हीं सब
काहू ।
भले रे पोच अकुल कुलवंता, गुणी निरगुणी धन नीधनवंता
।
भूख पियास अनहित हित कीन्हो, हेत मोर तोर करि लीन्हा
।
पंच स्वाद ले कीन्हा बंधू, बँधे करम जा आहि अबंधू ।
अचर जीव जंत जे आही, संकट सोच बियापैं ताही ।
निंद्या अस्तुति मान अभिमाना, इनि झूठै जीव हत्या
गियाना ।
बहु बिधि करि संसार भुलावा, झूठै दो जगि सांच लुकावा
।
माया मोह धन जोबना, इनि बँधे सब लोइ ।
झूठै झूठ बियापियां, कबीर अलख न लखई कोइ ।
झूठनि झूठ साँच करि जाना, झूठनि में सब साँच
लुकाना ।
धंध बंध कीन्ह बहुतेरा, क्रम बिवर्जित रहै न
नेरा ।
षट दरसन षट आश्रम कीन्हा, षट रस खाटि काम रस
लीन्हां ।
चारि बेद छह सास्त्र बखानैं, विद्या अनंत कथैं को
जानै ।
तप तीरथ ब्रत कीन्हें पूजा, धरम नेम दान पुन्य दूजा
।
और अगम कीन्हें ब्यौहारा, नहीं गमि सूझै वार न
पारा ।
लीला करि करि भेख फिरावा, ओट बहुत कछू कहत न आवा?
गहन ब्यंद नहीं कछू नहीं सूझै, आपन गोप भयौ आगम बूझै ।
भूलि परो जीव अधिक डराई ? रजनी अंध कूप ह्नै धाई ।
माया मोह उनवै भरपूरी, दादुर दामिनि पवना पूरी
।
तरिपै बरिषै अखंड धारा, रैनि भामिनी भया
अँधियारा ।
तिहि बियोग तजि भये अनाथा, परे निकुंज न पावै पंथा
।
वेद न आहि कहूँ को मानै, जानि बूझि में मया अयानै
।
नट बहुरूप खेलै सब जानै ? कला केर गुन ठाकुर माने
।
ओ खेले सब ही घट मांही, दूसर के लेखै कछु नाहीं ?
जाके गुन सोई पै जानै, और को जानै पार अयानै ?
भले रे पोच औसर जब आवा, करि सनामान पूरि जम पावा
।
दान पुन्य हम दिहूँ निरासा, कब लग रहूँ नटारंभ काछा
।
फिरत फिरत सब चरन तुरानै, हरि चरित अगम कथै को
जानै ।
गण गंध्रप मुनि अंत न पावा, रह्यो अलख जग धंधै लावा
।
इहि बाजी सिव बिरंचि भुलाना, और बपुरा को क्यंचित
जाना ।
त्राहि त्राहि हम कीन्ह पुकारा, राखि राखि साई इहि बारा
।
कोटि ब्रह्मंड गडि दीन्ह फिराई, फल कर कीट जनम बहुताई ।
ईश्वर जोग खरा जब लीन्हा, टरो ध्यान तप खंड न
कीन्हा ।
सिध साधिका उन थै कहु कोई, मन चित अस्थिर कहुँ कैसै
होई ?
लीला अगम कथै को पारा, बसहु समीप कि रहौ निनारा
।
खग खोज पीछै नहीं, तूँ तत अपरंपार ।
बिन परसै का जांनिये, सब झूठे अहंकार ।
अलख निरंजन लखै न कोई, निरभै निराकार है सोई ।
सुनि असथूल रूप नहीं रेखा, द्रिष्टि अद्रिष्टि
छिप्यौ नहीं पेखा?
बरन अबरन कथ्यौ नहीं जाई, सकल अतीत घट रह्यौ समाई
।
आदि अंत ताहि नहीं मधे, कथ्यौ न जाई आहि अकथे ।
अपरंपार उपजै नहीं बिनसै, जुगति न जानिये कथिये
कैसे ।
जस कथिये तस होत नहीं, जस है तैसा सोइ ?
कहत सुनत सुख उपजै, अरु परमारथ होइ ?
जांनसि नहीं कस कथसि अयाना, हम निरगुन तुम्ह सरगुन
जाना ।
मति करि हीन कवन गुन आंही, लालचि लागि आसिरै रहाई ।
गुन अरु ग्यान दोऊ हम हीना, जैसी कुछ बुधि बिचार तस
कीन्हा ।
हम मसकीन कछु जुगति न आवै, ते तुम्ह दरवौ तौ पूरि
जन पावै ।
तुम्हरे चरन कवल मन राता, गुन निरगुन के तुम्ह निज
दाता ।
जहुवां प्रगटि बजावहु जैसा, जस अनभै कथिया तिनि तैसा
।
बाजै जंत्रा नाद धुनि होई, जे बजावै सो औरै कोई ?
बांजी नाचै कौतिग देखा, जो नचावै सो किनहूँ न
पेखा ?
आप आप थैं जानिये, है पर नाहीं सोइ ?
कबीर सुपिनै केर धन ज्यूँ, जागत हाथि न होइ ।
जिनि यहु सुपिना फुर करि जाना, और सब दुखि यादि न आना ।
ग्यान हीन चेत नहीं सूता, मैं जाया बिष हार भै
भूता । सूता = सोया हुआ
पारधी बान रहै सर साँधे, बिषम बान मारै बिष बाधै
।
काल अहेड़ी संझ सकारा, सावज ससा सकल संसारा ।
दावानल अति जरै बिकारा, माया मोह रोकि ले जारा ।
पवन सहाइ लोभ अति भइया, जम चरचा चहुँ दिसि फिरि
गइया ।
जम के चर चहुँदिसि फिरि लागे, हंस पखेरुवा अब कहाँ
जाइवे ।
केस गहै कर निस दिन रहई, जब धरि ऐंचे तब धरि चहई
।
कठिन पासु कछू चलै न उपाई, जम दुवारि सीझे सब जाई ।
सोई त्रास सुनि राम न गावै, मृग त्रिष्णा झूठी दिन
धावै ।
मृत काल कीनहूँ नहीं देखा, दुख कौ सुख करि सबहीं
लेखा ।
सुख करि मूल न चीन्हसि अभागी, चीन्है बिना रहै दुख
लागी ।
नीम कीट रस नीम पियारा, यूँ विष कूँ अमृत कहै
संसारा ।
अछित रोज दिन दिनहि सिराई, अमृत परहरि करि बिष खाई
।
जांनि अजानि जिन्हैं बिष खावा, परे लहरि पुकारै धावा ।
बिष के खांये का गुन होई, जा बेदन जानै परि सोई ।
मुरछि मुरछि जीव जरिहै आसा, कांजी अलप बहुखीर बिनासा
।
तिल सुख कारनि दुख अस मेरू, चौरासी लख लीया फैरू ।
अलप सुख दुख आहि अनंता, मन मैंगल भूल्यौ मैमंता
।
दीपक जोति रहै इक संगा, नैन नेह मांनू परै पतंगा
।
सुख विश्राम किनहूँ नहीं पावा, परहरि सांच झूठे दिन
धावा ।
लालच लागे जनम सिरावा, अंति काल दिन आइ तुरावा
।
जब लग है यहु निज तन सोई, तब लग चेति न देखै कोई ।
जब निज चलि करि किया पयांना, भयौ अकाज तब फिर पछिताना
।
मृगत्रिष्णा दिन दिन ऐसी, अब मोहि कछू न सोहाइ ।
अनेक जतन करि टारिये, करम पासि नहीं जाइ ।
रे रे मन बुधिवत भंडारा, आप आप ही करहुँ बिचारा ।
कवन सयाना कौन बौराई, किहि दुख पइये किहि दुख
जाई ।
कवन सार को आहि असारा, को अनहित को आहि पियारा
।
कवन साच कवन है झूठा, कवन करू को लागै मीठा ।
किहि जरिये किहि करिले अनंदा, कवन मुकति को मल के फंदा
।
रे रे मन मोहि ब्यौरि कहि, हौ तत पूछौ तोहि ।
संसै मूल सबै भई, समझाई कहि मोहि ।
सुनि हंसा मैं कहूँ बिचारी, त्रिजुग जोति सबै
अँधियारी ।
मनिषा जनम उत्तिम जो पावा, जानू राम तौ सयान कहावा
।
नहीं चेतै तो जनम गँवाया, परौ बिहान तब फिरि
पछतावा ।
सुख करि मूल भगति जो जानै, और सबै दुखया दिन आनै ।
अमृत केवल राम पियारा, और सबै बिष के भंडारा ।
हरि आहि जौ रमियै रामा, और सबै बिसमा के कांमा ।
सार आहि संगति निरवाना, और सबै असार करि जाना ।
अनहित आहि सकल संसारा, हित करि जानियै राम
पियारा ।
साच सोई जे थिरह रहाई, उपजै बिनसै झूठ ह्नै जाई?
मीठा सो जो सहजै पावा, अति कलेस थै करू कहावा ।
ना जरियै ना कीजै मैं मेरा, तहाँ अनंद जहाँ राम
निहोरा ।
मुकति सोज आपा पर जानै, सो पद कहाँ जु भरमि
भुलानै ।
प्रान नाथ जग जीवना, दुरलभ राम पियार ।
सुत सरीर धन प्रग्रह कबीर, जीये रे तर्वर पंख
बसियार ।
रे रे जीव अपना दुख न संभारा, जिहि दुख ब्याप्या सब
संसारा ।
माया मोह भूले सब लोई, क्यंचित लाभ मानिक दीयौ
खोई ।
मैं मेरी करि बहुत बिगूला, जननी उदर जन्म का सूला ।
बहुत रूप भेष बहु कीन्हा, जरा मरन क्रोध तन खीना ।
उपजै बिनसै जोनि फिराई, सुख कर मूल न पावै चाही
।
दुख संताप कलेस बहु पावै, सो न मिलै जे जरत बुझावै
।
जिहि हित जीव राखिहै भाई, सो अनहित है जाइ बिलाई ।
मोर तोर करि जरे अपारा, मृगतृष्णा झूठी संसारा ।
माया मोह झूठ रह्यौ लागी, को भयौ इहाँ का ह्नै है
आगी ।
कछु कछु चेति देखि जीव अबहीं, मनिषा जनम ज पावै कबही ।
सारि आहि जे संग पियारा, जब चेतै तब ही उजियारा ।
त्रिजुग जोनि जे आहि अचेता, मनिषा जनम भयौ चित चेता
।
आतमा मुरछि मुरछि जरि जाई, पिछले दुख कहता न सिराई
।
सोई त्रास जे जानै हंसा, तौ अजहुँ न जीव करै
संतोसा ।
भौसागर अति वार न पारा, ता तिरिबे को करहु
बिचारा ।
जा जल की आदि अंति नहीं जानिये, ताकौ डर काहे न मानिये?
को बोहिथ को खेवट आही, जिहि तिरिये सो लीजै
चाही ।
समझि बिचारि जीव जब देखा, यहु संसार सुपन करि लेखा
।
भई बुधि कछू ग्यान निहारा, आप आप ही किया बिचारा?
आपण में जे रह्यौ समाई ? नेड दूरि कथ्यौ नहीं जाई?
ताके चीन्है परचौ पावा, भई समझि तासूँ मन लावा ।
भाव भगति हित बोहिया, सतगर खेवनहार ।
अलप उदिक तब जाणिये, जब गोपद खुर बिस्तार ।4।
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